‘जहां पहुंची नहीं हैं सड़कें, वहां पहुंचा है आतंकवाद, दशहत ही दशहत बस गई है दिलों में.’
इन पंक्तियों में जम्मूकश्मीर के बाशिंदों का दर्द छिपा है. आएदिन आतंकी वारदातों के चलते उन के दिलों में दहशत भरी हुई है. आतंकवाद की दशहत में यहां के लोग मुश्किलभरी जिंदगी गुजार रहे हैं. आतंकी घटनाओं का भयावह असर इंसानों के साथसाथ यहां की आबोहवा पर भी पड़ा है.
पिछले 15 सालों के दौरान कश्मीर के अलावा जम्मू और इस के आसपास के इलाकों में भी आतंकी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. 20 मार्च, 2002 को जम्मू के रघुनाथ मंदिर पर, 26 मार्च, 2002 को जम्मू के कालूचक्क इलाके में, 22 जुलाई, 2013 को जम्मू के अखनूर में, 26 जुलाई, 2013 को जम्मू के सांबा जिले में और 14 फरवरी, 2015 को कठुआ जिले के लखनपुर क्षेत्र में आतंकियों ने हमले किए. 28 मार्च, 2017 को जम्मूकश्मीर की पंजाब सीमा से लगते बम्याल में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ हुई जो कई दिनों तक चली. जम्मू रीजन के कठुआ, पुंछ, राजौरी, उधमपुर इलाकों में अकसर आतंकी हमले होते रहते हैं.
दहशत की दस्तक
जम्मू क्षेत्र का 70 फीसदी हिस्सा पहाड़ी और पिछड़ा हुआ है. इस हिस्से के गांवों तक टेढ़ेमेढ़े रास्तों से हो कर जाना पड़ता है. सरकार की योजनाएं भले ही वहां न पहुंची हों, लेकिन आतंकवाद वहां अपनी दस्तक दे रहा है. आतंकवाद ने स्थानीय लोगों को बेबस जिंदगी गुजारने को मजबूर कर दिया है. नवंबर 2013 को जम्मू के राजौरी इलाके में रात को रुखसाना के घर में घुस कर कुछ आतंकी उस के परिवार के साथ मारपीट करने लगे. तभी 13 साल की रुखसाना ने बहादुरी से उन का मुकाबला कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया. लेकिन इस घटना का बुरा असर यह हुआ कि अब स्थानीय लोग अपनी बेटियों को पढ़ाने के बजाय उन की जल्दी शादी कराने लगे हैं.
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