जोश, जूनून और होश की अगर कहीं मिशाल होगी तो विश्व में दो नाम सबसे पहले लिए जाएंगे. एक, चे गुएरा और दूसरा, भगत सिंह. दोनों ने अपने अपने समय में वो कर के दिखाया जो आज की भावी पीढ़ी मन ही मन सोच कर प्रेरित तो होती है लेकिन उस राह चलने पर पावं फटने लगते है. लेकिन बात यहाँ न तो भगत सिंह की है, न चे ग्वेरा की. यह कहानी है प्रवासी मजदूर महेश जेना की. जिस की उम्र मात्र 20 साल की है. एक ऐसा माइग्रेंट मजदूर जिस ने 1700 किलोमीटर की लम्बी यात्रा एक साइकिल में महज 7 दिन में पूरी की.

महेश महाराष्ट्र के सांगली जिले के इंडस्ट्रियल बेल्ट में काम करता था. सिर्फ 6000 रूपए की तनख्वाह में काम करने वाले महेश को जब पता चला की प्रधानमंत्री ने पूरे देश को ठप कर दिया है तो वह 1 अप्रैल को अपना झोला उठा चल दिया. जिस फैक्ट्री में वह काम करता था वह फैक्ट्री देश में लाकडाउन के चलते बंद कर दी गई. न काम न सरकारी राहत. वैसे भी सरकार ने कभी राहत दी भी तो नहीं थी. सरकार पर भरोसा करना मतलब खुद को भूखे मारने जैसा था. इसलिए दिमाग को एकाग्र कर उस ने अपने साइकिल में एक जोड़ी कपडा, कुछ बिस्किट के पैकेट और पानी की बोतल की गठरी बांधी. महाराष्ट्र से अपने अदम्य साहस से 1 अप्रैल को वह निकल पड़ा और सिर्फ 7 दिनों के भीतर अपने जिला राज्य उडीसा पहुंच गया.

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यह अपने आप में अदभुत कार्य है. एक 20 साल का नवयुवक साइकिल के सहारे मात्र 3000 रूपए ले कर मीलों का सफ़र तय करने अकेले निकल जाता है. न खाने का ठिकाना, न रहने का, अंजान रास्तों में बेझिझक निकलना यह मिशाल है उसके ऊँचे होंसलों की. खासकर एक ऐसे समय में जब संभावना है कि कई मीलों तक इंसान के होने की उम्मीद न हो. कितना धैर्य और एकाग्रता समेटा होगा उस युवक ने.

खबर के मुताबिक उस ने अपनी यात्रा को शुरू करने से पहले 4-5 दिन इस पर गहराई से सोचा, प्रतिदिन किलोमीटर का हिसाब बनाया. रात को इस मारे नींद भी नहीं आई कि इतना लम्बा सफ़र न जाने कब तक पूरा हो. जिस दिन महेश ने अपनी पहले दिन की यात्रा शुरू की तो एक दिन में 150 किलोमीटर का सफ़र तय किया. उस के बाद रात में किसी सार्वजनिक स्थल में शरण लेना फिर मोका लगते आगे की यात्रा की शुरुआत करना. दिन में दो बार साइकिल के टायर की ट्यूब फट जाया करती थी. फिर वह उसे पैदल तब तक ले जाता जब तक पास कोई गांव में कोई ठीक करने वाला न मिल जाता. दूकान में ज्यादातर दुकानदार मानवता के नाते सिर्फ ट्यूब का पैसा लेते मेहनताना का नहीं. कही मददगार लोग रास्ते में मिलते गए और साथ देते गए. इस दौरान कुछ पुलिस वालों ने भी उसे बैठा कर खाना खिलाया. बीच बीच में वह रास्ता भटका लेकिन उस ने अपनी साइकिल घुमाई और अपनी मंजिल की तरफ चल दिया.

आसान तो नहीं होता यह सब. हम ने भी हिमांचल के खीर गंगा और पार्वती वेली जा कर काफी ट्रेकिंग की है, इसलिए हमें पता है एडवेंचर क्या होता है. पहाड़ों पर वुडलैंड के जूते, आँखों में रेबेन का चश्मा और रोकिंग ब्रांडेड कपड़े. अगर दसों मील चलते थक जाओ तो तरह तरह के जूस साथ में ले कर चलना पड़ता है. और तो और कंधे पर सामान ज्यादा हो तो एक टट्टू(गधे) का खर्चा अलग से जुड़ जाता है.

लेकिन साहब यह एडवेंचर नहीं है. रबड़ की चप्पलों और दुबला पतला शरीर वाला यह बालपन वाली शकल का युवक जीने का संघर्ष कर रहा था. उस के लिए यह आरपार का मसला था. एडवेंचर तो मन को खुश करने के लिए अमीर लोग करते हैं. वे करते है जो पेट भर खाना खा चुके हैं. वे जो शहरी मानसिक थकान की पीड़ा महसूस कर रहे हों. महेश जेसे कई मजदूर जो पैदल अपने गांव निकले हैं उन के लिए यह जिन्दा रहने का संघर्ष था.

महेश सिर्फ हिम्मत की मिशाल नहीं बल्कि इस व्यवस्था के मुह पर करार तमाचा भी है. यही लाकडाउन है जिस ने पूरे सिस्टम का कुरूप चेहरा सामने ला खड़ा किया है. क्या समाज, क्या मीडिया, क्या नेता सब को निर्वस्त्र कर दिया है. सरकार कहती है कि 15 लाख भारतीय(अमीर) प्रवासियों को विदेश से रेस्क्यू किया गया. बस चिंता इस बात की लगी थी कि कहीं देश के मजदूर प्रवासियों की तरह उन पर लाठियां न बरसाई हों. मेरी इस उम्मीद पर सरकार एकदम खरी उतरी.

अभी कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने कोटा से आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल के दाखले की तैयारी कर रहे छात्रों का रेस्क्यू ऑपरेशन चलाया. हजारों फंसे छात्रों को कोटा से यूपी लाया गया. मध्यम वर्ग का बड़ा हिस्सा सरकार की इस दरियादिली से खुश हुआ. यह वही मध्यम वर्ग है जो प्रवासी मजदूरों द्वारा लाकडाउन तोड़ पैदल अपने घर निकल जाने को ले कर पूरा दिन घर बैठे गरिया रहा था और कोटा रेस्क्यू को ले कर यह दलील दे रहा था कि यह मात्र 19-20 साल के स्टूडेंट्स हैं इन्हें घर से दूर रह कर मेंटल स्ट्रेस झेलना पड़ रहा है. लेकिन महेश जैसे हजारों उसी उम्र के प्रवासी मजदूरों की न तो मेंटल स्ट्रेस की उन्हें परवाह होती है न ही भूख की.

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बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार जो कुछ दिन पहले केंद्र सरकार से इसी कोटा प्रकरण पर एक्शन लेने की मांग कर रहे थे पता चला कि यह सिर्फ दिखावा था. उन्ही के सरकार में भाजपा विधायक अनिल सिंह द्वारा कोटा में फंसी अपनी बेटी को बिहार वापस लाया गया. भाजपा विधायक को 16 से 25 अप्रैल तक नितीश सरकार द्वारा ही स्पेशल पास दिया गया. यह प्रकरण यह बताने के लिए काफी है कि यह लाकडाउन सिर्फ कमजोर और बेबसों के लिए ही है, बाकी अमीरों की जेब ने तो लाकडाउन तोड़ ही दिया है.

लाकडाउन में जिस समय उच्च मजदूर और निम्न मध्यम वर्ग अपने घरों में बैठ कर हिन्दू मुस्लिम की बहस में फंसे हुए थे, मध्यम वर्ग वर्क फ्रॉम होम कर रहा था और उच्च तबका अपने घरों के बालकनियों, बैठकों के कमरे में सितार-गिटार बजा अन्ताक्षरी खेल कर अपनी छुट्टियां मना रहा था उस समय एक 20 साल का प्रवासी मजदूर मीलों दूर का जीवन मरण का सफ़र बिस्किट-पानी के सहारे काट रहा था. यही असली भारत है जिसे हमेशा से सरकारें छुपाती आई हैं.

भगत सिंह और चे ग्वेरा जैसे युवा क्रांतिकारी ने अपने युवावस्था में इसी मजदूर तबके के लिए अपना बलिदान दिया. लेकिन यह भी सच है कि इस बलिदान की प्रेरणा इसी तबके से उन्हें मिली. जिस साहस का परिचय उन्होंने दिया वह साहस यही तबका उन्हें दे सकता था. इसका एक बड़ा उदाहरण युवा महेश है. हमारे लिए यह लाकडाउन महज घरों में बैठ कर अपनी खट्टेमीठे यादों को डायरी में संजोने का जरिया बनेगा. लेकिन यह लाकडाउन इतिहास में गरीबगुरबों की यातनाओं के लिए भी जाना जाएगा. आज कई युवा महेश जीवन की परवाह किये बगैर सैकड़ों किलोमीटर जीवन की राहों पर निकल चुके हैं. इन की यह अनेक यात्राएं बताती है कि समाज अभी सभ्य नहीं हुआ है बल्कि सभ्य होना बाकी है.

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