न्याय की देवी की नई मूर्ति को देश के उच्चतम न्यायालय में लगा दिया गया है. इस नई मूर्ति के हाथों में अब पहले की तरह तलवार नहीं है बल्कि उसकी जगह संविधान ने ले ली है. इस प्रतिमा को सुप्रीम कोर्ट की लाइब्रेरी में लगाई गई है. इस मूर्ति को देखने के बाद यह न्याय की कम और मंदिर की देवी अधिक लग रही है. नई मूर्ति ने साड़ी पहन रखी है, साड़ी को भारतीय परिधान के रूप में जाना जाता है इसलिए नई मूर्ति को साड़ी में देखने की बात तक तो ठीक है लेकिन इसे गहनों से लादने की बात हजम नहीं हो रही. न्याय की देवी की नई प्रतिमा में उनके गले में अलग अलग साइज और डिजाइन के कई हार हैं. इतना ही नहीं कानों में भी आभूषण पहना दिया है. मंदिर में रखी देवियों की प्रतिमा की तरह दिखाने के लिए सिर पर एक मुकुट भी पहना दिया है. इतना ही नहीं मूर्तिकार शिल्पकार विनोद गोस्वामी ने प्रतिमा के माथे पर बिंदी तक लगा डाली है. सही अर्थों में कहा जाए तो इस नई मूर्ति को देख कर ऐसा लग रहा है कि वापस हम मनुस्मृति के युग में चले गए हों.
पुराने जमाने की औरत बनाने की कोशिश
जहां तक प्रतिमा के माथे पर बिंदी लगाने की बात है, तो यह भी तर्क का मुद्दा है. हिंदुस्तान में रहने वाले हर नागरिक को पता है कि सिर पर बिंदी लगाने वाली अधिकांश महिलाएं हिंदू धर्म से आती हैं. ऐसे में धर्म निरपेक्ष मुल्क में एक सार्वजनिक और विशेष महत्व रखने वाली न्याय की मूर्ति के माथे पर बिंदी क्यों ? अगर बुर्का को धर्म विशेष से जोड़ कर देखा जाता है, तो बिंदी को क्यों नहीं देखा जाना चाहिए .
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार न्यायमूर्ति वायएस चंद्रचूड़ के कहने पर लेडी औफ जस्टिस को नया रूप दिया गया है. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का मानना है कि कानून अंधा नहीं है यह सबको समान रूप से देखता है. उनके अनुसार, मूर्ति के एक हाथ में संविधान होना चाहिए न कि तलवार ताकि भारत के हर नागरिक तक यह संदेश पहुंचे कि अदालतें संवैधानिक नियम कानूनों के अनुसार न्याय देती है, तलवार के आधार पर नहीं जो हिंसा का प्रतीक है. इसमें संदेह नहीं कि न्यायमूर्ति की सोच सही है लेकिन मूर्ति को गहनों से लदीफदी बनाने की वजह समझ नहीं आ रही है. मूर्ति में एक प्रगतिशील भारतीय नारी की छवि क्यों नजर नहीं आती. इसे देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि यह राजामहाराजाओं वाली कौमिक बुक की रानी हो. कहीं न कहीं यह नई छवि उस पुरानी सोच को बढ़ावा देती है, जो औरतों को सजाधजा कर घर की चाहरदीवारी में रखने का हिमायती था.
पुराने सामंती सोच रखने वाले जमींदार की घर की बहूएं हो या पौराणिक कथाओं की सीता, द्रौपदी जैसी राजकुमारियां. तत्कालिक समाज में इसका वर्णन उन नारियों की तरह किया गया, जो समाज की विकृत मानसिकता की शिकार हुई. इन्हें गहनों में लाद कर रखा गया, दुनिया भर के ऐशोआराम इनके कदमों में लाद दिए, इसके बावजूद किसी पर चरित्रहीन का आरोप लगा कर जंगल में रहने को भेज दिया गया, तो किसी को पांच पुरुषों की भोग की वस्तु बना दिया गया. क्या इस प्रतिमा में समाज में हो रहे बदलावों के अनुसार स्त्री को नहीं दर्शाया जाना चाहिए था. क्या इस मूर्ति में इस युग की उन महिलाओं की छवि की झलक नहीं होनी चाहिए थी जो अपनी बुद्धिबल और ज्ञान से आसमान में भी सुराख करने का हौसला रख रही हैं.
लेडी औफ जस्टिस का भारत तक का सफर
पुरानी न्याय की देवी यानि लेडी औफ जस्टिस का जिक्र रोमन कला मे “जस्टिटिया” के नाम से मिलता है, जो प्राचीन रोम में न्याय का प्रतीक थी. कुछ जगह इसे ग्रीक देवी डाइक/ऐस्ट्रेया के रूप में भी माना जता है. प्राचीन मिस्र की सभ्यता में इस तरह की मूर्ति, जिसे माएट कहा गया . उस देवी को वहां सत्य, संतुलन और ब्रह्मांडीय व्यवस्था की देवी कहा गया. इसकी उत्पत्ति 2300ईपू मानी जाती है. माएट के हाथ में तलवार के साथसाथ सच का प्रतीक पंख हुआ करता था. इसके बाद प्राचीन ग्रीस में भी थेह्मिस नाम की एक देवी का जिक्र आता है उसे भी न्याय का प्रतीक माना गया. इस मूर्ति के हाथ में तराजू, तलवार और समृद्धि के प्रतीक के रूप में बाल्टी पकड़े हुए दिखाया गया. भारत की पुरानी न्याय की मूर्ति इस थेह्मिस के ज्यादा करीब है क्योंकि इसके आंखों पर भी पट्टी बंधी हुई है. आंखों पर पट्टी बांधे थेह्मिस के जरिए ही सबसे पहले पूरे विश्व को यह संदेश दिया मिला कि न्याय अपने मूल रूप में कभी अंधा नहीं था बल्कि हमेशा से अलर्ट था. प्राचीन रोम में रहने वालों ने थेह्मिस को जस्टिटिया के रूप में स्वीकारा. उस काल में सम्राट औगस्टस ने जस्टिटिया को रोम के कानून से जोड़ कर एक मजबूत स्थिति दी. यहीं से लेडी औफ जस्टिस की मूर्ति को बल मिला.
हिंदू राष्ट्र की महिला क्या ऐसी ही होगी
मिस्र, ग्रीक, रोम सभी जगह महिलाओं को न्याय से जोड़ कर देखा गया. ईसा से पूर्व के उस युग में भी उसके अस्तित्व को महत्व दिया लेकिन आज के प्रगतिशील युग में बनी यह नई न्याय की देवी वापस मनुवादी और संघी सोच को बल दे रही है. उस सोच को बढ़ावा दे रही है जिसका जिक्र तसलीमा नसरीन ने भी किया था कि महिलाओं को पायल सजाने के लिए नहीं पहनाया जाता बल्कि उस पर नजर रखने के लिए पायल पहनाते हैं, ताकि पायल की छमछम से यह पता करना आसान हो कि वह अपनी चौखट, सीमा या हद को लांघने की कोशिश करे, तो उसके पंख कुतर दिए जाए.
आज की न्याय की मूर्ति संघ की हिंदू राष्ट्र की विचारधारा के बेहद करीब नजर आती है क्योंकि उस राष्ट्र की कल्पना करने पर महिलाओं का जो रूप उभरता है वह इसके काफी करीब है, माथे पर बिंदी लगाए, सिर पर मुकुट सजाए, गहनों से लदी हिंदू औरत. जिसका ग्रंथों में गुनगान होता है और गर्भ में मारने का प्लान होता है.