रेस्तरांओं ने आजकल सर्विस चार्ज लगा कर भारीभरकम बिलों पर एक और बोझ जोड़ दिया है. होता यह है कि बिल में जुड़ कर आने वाले सर्विस चार्ज के बाद वेटर हाथ बांध कर खड़ा हो जाता है और अच्छी सेवा के पैसे देने के बाद ग्राहक को असल संतुष्टि के लिए कुछ और पैसे छोड़ने पड़ते हैं या वेटर के तीखे रुख का सामना करना पड़ता है.
अच्छी सेवा के लिए टिप देना असल में गलत है और इसे सामंती युग की देन समझा जाना चाहिए जब राजा या दरबारी अपने सेवकों को समयसमय पर पैसे देते रहते थे ताकि वे विद्रोह न करें और विश्वसनीय बने रहें. खाने के बाद खाने के दाम मैन्यू के हिसाब से देने के बाद टिप की परंपरा गलत है, क्योंकि वेटरों को वेतन देने का काम रेस्तरां मालिकों का है. ग्राहक ने जितना खाया उतना पैसा दिया, हिसाब बराबर. जापान व पूर्वी देशों में यह चलन बिलकुल नहीं है पर अमेरिका में भरपूर है.
अगर टिप देने का कोई औचित्य है तो हर जगह होनी चाहिए. अगर आप कपड़े खरीदती हैं और सेल्स गर्ल्स 20-25 पोशाकें दिखाती हैं तो क्या वे टिप की अधिकारी हो जाती हैं? डाक्टर यदि अच्छा काम करे तो क्या फीस के साथसाथ टिप भी मांगे?
टिप का वातावरण अपनेआप में गलत है. सरकारी अस्पतालों में बच्चे पैदा होने पर नर्स को खुश हो कर टिप देने की परंपरा है, यह भी गलत है. कई घरों में अतिथि जाते समय घर के नौकरों को टिप देते हैं, जो गलत है. अतिथि के कारण जो अतिरिक्त काम नौकर ने किया उस की भरपाई का जिम्मा घर के मालिक का है.
कंज्यूमर मामलों के मंत्रालय ने जो आदेश रेस्तरांओं में टिप देने पर दिया है वह आधाअधूरा है. होना यह चाहिए कि यह बिलकुल बंद हो जाए. इस पर पूरी तरह से निषेध हो. यह केवल रेस्तरांओं में ही नहीं, व्यवसाय के हर क्षेत्र में हो. टिप की परंपरा गलत है, क्योंकि इस से अमीर और फैजदिली का अंतर स्पष्ट होता है. यह सेवा देने वाले को अवसर देती है कि वह सेवा में कमीबढ़ती करे ताकि टिप मिलने का अवसर मिले.
रेस्तरांओं को चाहिए कि वे अपने वेटरों को वेतन ही इस प्रकार दें कि टिप की गुंजाइश ही न रहे. वेटरों को किसी भी तरह की टिप न लेने दें. टिप इनसैंटिव की तरह वेतन में से देना ही ग्राहकों को अच्छी सेवा सुरक्षित करना माना जाए.