आजादी के बाद देश को केवल राजनीतिक आजादी मिली, आर्थिक आजादी नहीं. इसलिए हम आर्थिक विकास के मामले में पिछड़ गए. लाइसैंस, कोटा, परमिट राज के कारण देश में उद्योगधंधों और व्यापार करने पर कई तरह की पाबंदियां लगी हुई थीं. हम ने आर्थिक नीतियों के नाम पर वह रास्ता चुना जो विकासविरोधी था.

उन दिनों साम्यवाद और समाजवाद वैचारिक फैशन थे. साम्यवाद से प्रभावित पंडित जवाहरलाल नेहरू इस भेड़चाल में शरीक हो गए और उन्होंने देश के लिए समाजवाद का रास्ता चुना.

विकास के इस मौडल ने देश की प्रगति के सारे रास्ते अवरुद्ध कर दिए. देश की उत्पादक शक्तियों को परमिट, कोटा राज की जंजीरों में जकड़ दिया गया. इसलिए, देश को राजनीतिक आजादी तो मिली, मगर आर्थिक आजादी एक दूर का सपना बनी रही.

नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन (1912-2006) उन  गिनेचुने अर्थशास्त्रियों में से थे जिन्होंने अपने समय के आर्थिक चिंतन को बहुत गहरे तक प्रभावित किया. भारत जब आजादी के बाद आर्थिक नियोजन के जरिए 5वें दशक में अपनी आर्थिक विकास की राह तय कर रहा था तब 1963 में मिल्टन फ्रीडमैन को सलाहकार के तौर पर बुलाया था. इस के बाद फ्रीडमैन ने एक लेख ‘इंडियन इकोनौमिक प्लानिंग’ लिखा था. उस में वे भारत के आर्थिक विकास की अपार संभावनाओं को पुरजोर तरीके से उजागर करते हैं.

आर्थिक नीति का अभाव

फ्रीडमैन के विश्लेषण से भारत की आर्थिक बदहाली के कारण की शिनाख्त करने के नाम पर पिछले कई दशकों में जो कई मिथक पैदा किए गए हैं, वे ध्वस्त हो जाते हैं. और असली कारण सामने आ जाता है. उन्होंने कहा था  कि भारत की निराशापूर्ण धीमी विकास दर की वजह धार्मिक और सामाजिक व्यवहार या लोगों की गुणवत्ता में नहीं, बल्कि भारत द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीति में मिलेगा. भारत के पास आर्थिक विकास के लिए जरूरी किसी चीज का अभाव नहीं है. अभाव है तो सही आर्थिक नीति का.

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