पूर्वी शिक्षा प्रणाली बेहतर है या पश्चिमी शिक्षा प्रणाली, यह एक सतत प्रश्न है. मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकती हूं कि शिक्षा का सार पश्चिम में पूर्व से बिलकुल अलग और व्यावहारिक है क्योंकि अगर ऐसा न होता तो 7 साल सिंगापुर में बिताने और अच्छी तरह से व्यवस्थित होने के बाद मैं सिर्फ अपने बच्चों की शिक्षा की वजह से आस्ट्रेलिया जाने को विवश न होती. आज एक दशक के बाद जब पीछे मुड़ कर देखती हूं तो मुझे अपने निर्णय पर पूर्णसंतुष्टि महसूस होती है.
पश्चिमी शिक्षा प्रणाली अच्छे नागरिक बनाने के लिए डिजाइन की गई है जबकि पूर्वी शिक्षा प्रणाली खासतौर से हमारी भारतीय प्रणाली भ्रष्ट और कूपमंडूक बनाने के लिए. मैं इस बात को इतने विश्वास के साथ इसलिए कह रही हूं क्योंकि मैं ने दोनों प्रणालियों को अनुभव किया है. निम्न कुछ बिंदुओं का अध्ययन करने से पूर्वी बनाम पश्चिमी शिक्षा प्रणाली की स्थिति का अंतर स्पष्ट हो जाएगा.
शिक्षा में व्यावहारिकता
कुछ दिनों पहले की ही बात है, मेरी बेटी मैडिकल ऐंट्रैंस एप्लीकेशन के लिए अपना पोर्टफोलियो तैयार कर रही थी. उस ने मुझ से कहा, ‘‘मम्मी, प्लीज मेरी पर्सनल स्टेटमैंट (जो कि पोर्टफोलियो का हिस्सा था) की पू्रफरीडिंग कर दीजिए.’’ मैं ने उसे पढ़ा और काफी देर तक सोचती रही कि ये सब चीजें कितनी दूर की सोच कर करवाई जाती हैं. असल में बेटी ने उस स्टेटमैंट में अपने द्वारा अब तक किए मानवतावादी, सामुदायिक, स्वयंसेवी कार्यों का विवरण रिफ्रैंसेस के साथ लिखा था और इस के लिए उसे एंट्रेंस एप्लीकेशन पर कुछ अतिरिक्त अंक मिलने थे.
अब आप यही सोचेंगे कि इन सब कार्यों का मैडिकल ऐंट्रैंस से क्या संबंध, उस के लिए तो बस जूलौजी और कैमिस्ट्री टैस्ट होने चाहिए? ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि पश्चिमी शिक्षा प्रणाली में नैतिक गुणों की कद्र की जाती है. और फिर डाक्टरी के प्रोफैशन में तो नैतिकता अत्यंत ही आवश्यक तत्त्व है. इसलिए इस प्रोफैशन में जाने के लिए केवल मार्कशीट पर लिखे या प्रतियोगिता में अकादमिक विषयों में लाए गए अंकों के आधार पर निर्णय नहीं लिया जा सकता.
हमारे भारत देश में नैतिकता की कमी की पराकाष्ठा अपने चरम पर है तभी तो अकादमिक विषयों में सर्वोच्च स्थान पाने वाले डाक्टर भी अपने मरीजों के शरीर से अंग चुराने में नहीं हिचकिचाते. जाहिर है ऐसे लोग केवल पैसा कमाने के उद्देश्य से इस प्रोफैशन में आते हैं. जनसेवा या जनहित के लिए नहीं.
व्यक्तित्व विकास और पब्लिक स्पीकिंग के कोर्सेज भी सिर्फ एशियंस के लिए ही चलते हैं. क्योंकि पश्चिमी देशों में पैदा होते ही एक बच्चे को नेशन असेट यानी राष्ट्रीय संपत्ति माना जाता है और उस के पालनपोषण, शिक्षादीक्षा में उस की वैयक्तिकता को सर्वप्रमुखता दी जाती है.
दूसरी तरफ भारत में 40-50 वर्षीय पुत्र से भी उम्मीद की जाती है कि वह अपनी पत्नी को अगर कहीं बाहर ले कर जाए तो उस के लिए पहले अपने मातापिता से आज्ञा ले. अब ऐसी शिक्षा और ऐसे माहौल में व्यक्तित्व में निखार अर्जित करना तो माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने के समान ही होता है. वहीं, कठिन परिस्थितियों में डिसीजन मेकिंग, प्रौब्लम सौल्विंग जैसे हुनर वेस्टर्नर्स के व्यक्तित्व का हिस्सा सहज ही बन जाते हैं. इन्हें अर्जित करने के लिए उन्हें हम भारतीयों की तरह ‘डेल कार्निज’ जैसे कोर्सेज में प्रवेश नहीं लेना पड़ता.
प्रोग्राम फौर इंटरनैशनल स्टूडैंट असेसमैंट यानी पीआईएसए के आंकड़े बताते हैं कि पूर्वी देश जैसे सिंगापुर और चीन के बच्चे स्कूल और पीआईएसए में उच्च स्कोर तो लाते हैं मगर व्यावहारिक जीवन की समस्याएं सुलझाने के संदर्भ में चीन के बच्चों का स्कोर, टैस्ट लेने वाले सभी देशों के बच्चों के औसत स्कोर की तुलना में 51 अंक कम है जबकि अमेरिका के बच्चों का 10 अंक अधिक है.
शायद यही कारण है अमेरिका जैसे देशों की एयरलाइंस के पायलट्स का आपातकालीन हालात से जूझ कर सेफ लैंडिंग करने का सब से अच्छा रिकौर्ड है. कुछ एशियन एयरलाइंस जैसे अमीरात तथा सिंगापुर एयरलाइंस को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ एयरलाइंस होने का दरजा तो मिला हुआ है पर यह दरजा उन्हें यात्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं के आधार पर मिला है न कि आपातकालीन परिस्थितियों से बखूबी से निबटने के दृष्टिकोण की वजह से.
ईमानदार शिक्षक
गुरुब्रह्मा गुरुविष्णु: गुरुदेवो महेश्वर:
गुरु:साक्षात् परम ब्रह्मा तस्मैं श्री गुरवे नम:
एक वक्त था कि हमारी भारतीय संस्कृति में शिक्षकों का स्थान सर्वोपरि था किंतु क्या उपरोक्त पंक्तियां आज के परिवेश में भी लागू होती हैं. नहीं, बिल्कुल नहीं. परंतु क्यों नहीं? क्यों हमारे समाज में शिक्षक अपना सम्मान गंवा चुके हैं? इसे समझने की कोशिश करते हैं.
जब मेरे बच्चे कुछ बड़े हो गए तो मैं ने फिर से आगे पढ़ने का मन बनाया और यहां आस्ट्रेलिया में एक इंस्टिट्यूट में एक कोर्स में ऐडमिशन ले लिया. मैं ने पाया कि सबकुछ मनोबल बढ़ाने वाला था. अध्यापक हमारी समस्याओं को हल करने के लिए अपने लंचब्रैक का समय तक त्याग देते थे.
ऐसे में मुझे आगरा में अपनी स्कूलिंग और कालेज के दिन याद आ जाते जब वहां शिक्षक प्राइवेट ट्यूशन से पैसा कमाने में इतने व्यस्त थे कि कईकई दिनों तक स्कूल और कालेज की कक्षाओं में पढ़ाने तक न आते थे. अब ऐसे में गुरुब्रह्मा गुरुविष्णु: का दरजा तो अपनेआप ही खत्म हो जाना है.
पश्चिमी देशों में खासतौर से 5 मुख्य अंगरेजीभाषी देशों (अमेरिका, कनाडा, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, इंगलैंड) में एक ही क्लास में एकसाथ कम से कम 10 से 15 देशों के, विविध भाषाएं बोलने वाले, बिलकुल भिन्न परिप्रेक्ष्य के बच्चे पढ़ते हैं. इन हालात में शिक्षक पूरी क्लास के बच्चों को किसी स्टैंडर्ड तरीके से पढ़ा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर लेते हैं. वे हर बच्चे को उस की जरूरत और क्षमता के हिसाब से ध्यान दे कर उस के व्यक्तित्व में निखार लाते हैं.
पश्चिम में एक छात्र की असफलता के लिए जितना उस छात्र को जिम्मेदार माना जाता है उतना ही दोष उस के शिक्षक और शिक्षण संस्थान का भी माना जाता है. जबकि, पूर्व में असफलता का सारा दोष छात्र के ऊपर डाल दिया जाता है. पश्चिम में क्लास गु्रप डिस्कशन को पहली प्राथमिकता दी जाती है और छात्रों को ज्यादा से ज्यादा प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित किया जाता है वहीं पूर्व में प्राइवेट ट्यूशन और एकल स्टडी का बोलबाला है.
हमारे देश में जब बात निबंध लेखन की आती है तो आजादी के बाद से आज तक वही घिसेपिटे विषय जैसे कि दहेज प्रथा, मेरा प्रिय मित्र, सदाचार, बेरोजगारी, दीवालीहोली’ चलते आ रहे हैं. छात्र इन विषयों को शब्दश: किताबों से रट कर परीक्षा में लिख कर पास हो जाते हैं. ऐसे हालात में रचनात्मकता को बढ़ावा मिलने की गुंजाइश ही कहां बचती है.
पश्चिमी देशों में कवियों और लेखकों की जन्ममरण तिथियां रटना और उन की जीवनशैली परीक्षा में लिखने को नहीं दी जाती बल्कि उन की रचनाएं क्लास में पढ़ासमझा कर स्तरीय कविताएं, लेख लिखने का होमवर्क बच्चों को दिया जाता है ताकि आगामी पीढि़यों में भी शेक्सपियर, डब्लू बी यीट्स जैसे साहित्यकार और कवि समाज को मिलते रहें.
शिक्षा पर समानाधिकार
विश्वविद्यालयों में हर उम्र के लोग शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते हैं. ज्ञान प्राप्त करना उम्र की सीमा में नहीं बांधा जाता और लर्निंग को सहजता के साथ लाइफटाइम जर्नी माना जाता है. विश्वविद्यालयों की कक्षा में फिर शिक्षा के लिए आए अधेड़ छात्रों का नई पीढ़ी के छात्र और शिक्षक मजाक नहीं बनाते बल्कि अधिक सम्मान व सहयोग देते हैं.
मुझे याद आती है एक घटना जब अब से 25 साल पहले मैं आगरा विश्वविद्यालय में बीएससी तृतीय वर्ष में पढ़ रही थी, तभी एक ऐसी छात्रा ने हमारे साथ तृतीय वर्ष में प्रवेश लिया जिन्होंने द्विवर्षीय बीएससी डिगरी कुछ साल पहले पास की थी तथा अब उन की एमएससी करने की इच्छा थी. मगर क्योंकि तभी बीएससी, द्विवर्षीय कोर्स से त्रिवर्षीय में बदल चुका था, इसलिए उन्हें एमएससी करने के पहले बीएससी तृतीय वर्ष ब्रिज कोर्स के नाम से करना पड़ रहा था.
उन की उम्र हम से मात्र 3 साल ही अधिक थी. मगर इस के लिए क्लास में वे एलियन की तरह ट्रीट की जाती थीं. हदें तो तब पार होती थीं जब सब पीठ पीछे उन के लिए ‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम’ जैसे अपमानजनक शब्द प्रयोग करते थे. अब सोचने की बात है कि क्या एक उम्र के बाद विश्वविद्यालय जा कर पढ़ाई करना कोई जुर्म है?
राष्ट्र की संपत्ति युवा
दूसरे को आहत करना हम भारतीय अपना जन्मसिद्घ अधिकार मानते हैं. डाक्टरी और इंजीनियरिंग में प्रवेश न मिलने पर अभिभावक बच्चों को ऐसा महसूस कराते हैं कि आगे वे हाई पेड प्रोफैशन में नहीं जा पाते हैं तो उन का इस दुनिया में जीना पूरी तरह निरर्थक है और वे इस धरती पर एक बोझ मात्र हैं.
वहीं, पश्चिमी देशों के अभिभावक असफलता का सामना होने पर बच्चे से कहते हैं, ‘इट इज नौट एंड औफ द वर्ल्ड.’ हर बच्चे की अपनी खूबी होती है और पश्चिमी शिक्षा प्रणाली उन को उभार कर बच्चे के व्यक्तित्व को तराशने के सिद्घांत पर आधारित है. यही कारण है एशियन शिक्षा प्रणाली किताबी कीड़ों
को जन्म देती है जबकि पश्चिमी शिक्षा प्रणाली रचनात्मक, सृजनशील वैज्ञानिक, खिलाडि़यों, लेखकों आदि को.
पश्चिम में छोटे बच्चों के क्लासरूम पारिवारिक माहौल देने के लिए डिजाइन किए जाते हैं. बहुत छोटे बच्चों के क्लासरूम में हर बच्चे की एक फैमिली फोटो मंगा कर रखी जाती है. बच्चों को कक्षा के दौरान भी फिंगर फूड और फल खाने की अनुमति होती है. ऐसी चीजें खाने के लिए उन्हें लंचब्रैक तक इंतजार करने की जरूरत नहीं होती.
भारतीय शिक्षक और अभिभावक कुशल, बुद्घिमान बच्चों की सराहना करते हैं और उन्हें ही प्रगति के अधिक साधन उपलब्ध कराते हैं जबकि जीवन की वास्तविकता यह है कि मुरझाते, पीले पड़ते हुए पौधों को अधिक देखभाल की आवश्यकता होती है.
कमजोर छात्रों पर ठीक से ध्यान देने के बजाय ‘बुद्घिहीन हैं ये तो, इन के भेजे में कुछ नहीं घुस सकता’ कह कर उस के आत्मविश्वास को खंडखंड कर दिया जाता है. वे जो कुछ अच्छा कर सकते हैं उसे भी करने की क्षमता खो बैठते हैं. गुरु व मातापिता के सम्मान को ले कर बड़ेबड़े प्रवचन दिए जाते हैं, शास्त्रों का हवाला दिया जाता है परंतु एक बच्चे के मनोविज्ञान तथा भावनाओं को समझने की कुछ खास आवश्यकता नहीं समझी जाती.
‘ये आईएएस बन जाएं तो हम समझेंगे कि हम ने जीवन में सबकुछ पा लिया’ कहने वाले मातापिता यह कभी नहीं समझना चाहते कि उन का बच्चा जीवन से क्या पाना चाहता है, या उस के क्या अरमान हैं? कला, संगीत, लेखन के प्रति झुकाव रखना वक्त की बरबादी माना जाता है जबकि पश्चिमी सभ्यता में इन सब कलाओं में प्रवीण होना गौरव की बात है. साथ ही, स्वस्थ मानसिक विकास के लिए इन्हें आवश्यक भी माना जाता है.
भारत में परीक्षाफल निकलने के बाद असफल छात्रों के घर से भाग जाने और आत्महत्या करने की घटनाएं दुर्लभ नहीं हैं. जिंदगी से भागना सिखा कर और बच्चों को अपनी इच्छाओं का गुलाम बना कर हम देश को एक स्वस्थ मानसिकता का नागरिक कैसे दे सकते हैं?
अभिभावकों, शिक्षकों और पूरे समाज को यह समझने की बहुत ही जरूरत है
कि हम अपने बच्चों को सफलता और असफलता दोनों को सहज भाव से अपनाने के लिए प्रशिक्षित करें क्योंकि ये दोनों ही जीवनरूपी सिक्के के दो पहलू ही हैं.
व्यावसायिक शिक्षा प्रणाली
कुछ सालों पहले जब मैं यहां आस्टे्रलिया में अकाउंटिंग की पढ़ाई कर रही थी तो मेरी पढ़ाई केवल अकाउंटिंग तक ही सीमित नहीं थी. इस कोर्स में एक यूनिट व्यावहारिक वर्कप्लेस ट्रेनिंग भी शामिल थी. इस यूनिट में हमें वर्कप्लेस पर काम में आने वाले सभी उपकरणों के प्रयोग के और लिखित व वर्बल कम्युनिकेशन के प्रभावी तरीके भी सिखाए गए.
इसी तरह से यहां बाल काटने की ट्रेनिंग में केवल कैंचीकंघे का प्रयोग करना नहीं सिखाया जाता, बल्कि बालों और सिर की त्वचा की संरचना के बारे में भी पढ़ाया जाता है ताकि हर व्यक्ति को उस की खास जरूरत के हिसाब से सेवा प्रदान की जा सके.
रोजगार और भेदभाव
पश्चिम में हर काम में व्यावसायिकता है. हेयर ड्रैसिंग, कारपैंटरी, प्लंबिंग सभी के लिए अच्छे संस्थानों द्वारा बाकायदा प्रोफैशनल ट्रेनिंग उपलब्ध है. इसीलिए ऐसे काम करने वालों का शोषण भी नहीं है, साथ ही, हर व्यक्ति को अपनी पसंद का रोजगार करने का अवसर मिलता है. हर काम का सम्मान है, काम के आधार पर कोई छोटाबड़ा भी नहीं होता.
बहरहाल, फर्क जगजाहिर है कि वेस्टर्नर नएनए आविष्कार करते हैं, दूसरे के बनाए सिद्घांतों व फार्मूलों को रटने में उम्र नहीं बिताते.
समाज को हर व्यवसाय के लोगों की आवश्यकता पड़ती है और जब तक हर व्यवसाय में संलग्न नागरिकों का बराबर सम्मान नहीं होगा तब तक हम विकसित सभ्य समाज के मापदंडों पर खरे नहीं उतर सकते. हर काम को बराबर बनाने के लिए उस में व्यावसायिकता लानी होगी, इस के लिए न सिर्फ लोगों के माइंडसैट को बदलने की आवश्यकता है बल्कि शिक्षा प्रणाली को व्यावहारिक व तार्किक बना कर छात्रों की क्रिएटिविटी को तराशने में मददगार बनानी होगी.
– रीता कौशल