हमारा समाज सदियों से पुरुषप्रधान रहा है. इस प्रधानता की देन के लिए केवल समाज ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि कुदरत ने भी औरत की शारीरिक संरचना ऐसी की है कि वह पुरुष की अपेक्षाकृत कमजोर है. अत: यह स्पष्ट है कि स्त्री को सुरक्षा के लिए पुरुष के सहारे की आवश्यकता है और बेहतर संरक्षक ही सुरक्षा दे सकता है, इसलिए पुरुष का स्त्री से हर क्षेत्र में बेहतर होना आवश्यक है, यह सर्वविदित है. लेकिन पुरुष कई बार संरक्षक के स्थान पर भक्षक का रूप भी ले लेता है. यह बात दीगर है कि उस के लिए खास तरह के व्यायाम कर के या ट्रेनिंग ले कर उस से औरत मुकाबला कर सकती है, लेकिन यह अपवाद है. इसीलिए पैदा होने के बाद पहले पिता के, फिर भाई के, फिर पति के और बुढ़ापे में बेटे के संरक्षण में रह कर वह स्वयं को सुरक्षित रखती है.

स्त्री पुरुष पर निर्भर क्यों

अब प्रश्न उठता है कि क्या केवल शारीरिक सुरक्षा के लिए ही स्त्री पुरुष पर निर्भर करती है? नहीं. आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है. पहले जमाने में बालविवाह का प्रावधान था ताकि लड़की ससुराल के नए परिवेश में अपनेआप को आसानी से ढाल सके. लड़कियों को शिक्षित नहीं किया जाता था. तब वे आर्थिक दृष्टि से पूर्णरूप से पुरुषों पर निर्भर रहती थीं. समाज में विवाह के पहले औरत की पहचान पिता के नाम से होती थी, विवाह के बाद पति के नाम से. उस का अपना तो जैसे कोई वजूद ही नहीं था.

जिस लड़की के विवाह के पहले पिता या भाई नहीं होता था, वह अपनेआप को बहुत असुरक्षित महसूस करती थी. यहां तक कि परिणामस्वरूप आर्थिक अभाव के कारण उस के विवाह में भी अड़चनें आती थीं. विवाह के बाद भी यदि किसी कारणवश उस के पति की मृत्यु हो जाती थी या उस के द्वारा त्याग दी जाती थी, तो उस का पूरा जीवन ही अभिशप्त हो कर रह जाता था. जैसे उसी ने कोई अपराध किया हो. उस को पुन: विवाह की भी अनुमति नहीं थी. समाज में वह मनहूस के विशेषण से नवाजी जाती थी. वह किसी भी सामाजिकमांगलिक कार्य का हिस्सा नहीं बन सकती थी. उस के पूरे कार्यकलाप के लिए सीमा रेखा खींच कर उसे प्रतिबंधित कर दिया जाता था. उसे जीवन नए सिरे से आरंभ करना पड़ता था.

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