समाज में एक नई पीड़ा इस तथ्य से पैदा हो रही है कि बेटा पढ़लिख कर विदेश चला जाता है और देश में मातापिता अकेले रह जाते हैं. ऐसे अकेले रह जाने वालों की संख्या अब इतनी बढ़ गई है कि वे नजर आने लगे हैं. बेटे के फोन की प्रतीक्षा करते हुए वे यह सोच कर परेशान रहते हैं कि उन के मरने पर उन का अंतिम संस्कार करने के लिए बेटा समय पर आएगा या नहीं. इस से उन के मन में अवसाद का गंभीर भाव बराबर बना रहता है.

विदेशों में काम करने वाले कुछ बेटे सालदोसाल में एकाध बार देश आते हैं और मातापिता को देख जाते हैं, तो कुछ मातापिता को वहीं बुला लेते हैं लेकिन कुछ बेटे कईकई साल नहीं आते और लगने लगता है कि वे अब वहीं बस जाएंगे. यह विचार इतना पीड़ादायक होता है कि मातापिता इसे सह नहीं पाते और समय से पहले ही मर जाते हैं.

हकीकत चाहे जो भी हो, दुख का बोझ मातापिता को ही ढोना पड़ता है. छुट्टी ले कर बेटा लौटता है और देश में 2-4 हफ्ते रह कर वापस चला जाता है तो बिछोह का दुख मातापिता में और बढ़ जाता है. मातापिता बेटे के पास खुद जाते और कुछ दिनों उस के साथ रह कर देश लौटते हैं तो भी वे इसे सहन नहीं कर पाते हैं. फिर खर्च का सवाल तो उठता ही है. कुछ विदेशी सरकारों को भी यह रास नहीं आता कि लोग आते रहें और उन के यहां बसते रहें.

विदेशों में जा कर पढ़ने, नौकरी करने और वहीं बस जाने वाले बेटों में अधिकतर मध्यवर्गीय परिवारों के होते हैं. उन के पारिवारिक संबंध बहुत गहरे होते हैं. वे देश में मातापिता के संग बिताए गए दिनों को भूल नहीं पाते, इसलिए देश लौटने की इच्छा उन के मन में बराबर बनी रहती है. नौकरी या किसी और मजबूरी के चलते लौट नहीं पाते, इस कारण वे तनावग्रस्त भी रहते हैं. इधर मातापिता को भी इस बात का आभास रहता है कि विदेश में उन का बेटा उन्हें याद करता रहता है. इस से उन का दुख बढ़ता है. वे किसी से कुछ कह नहीं पाते और भीतर ही भीतर घुटते रहते हैं.

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