अर्थव्यवस्था के लिहाज से भारत दुनिया की टाॅप-10 अर्थव्यवस्थाओं में भले 5वें नंबर पर जद्दोजहद कर रहा हो. लेकिन कोरोना की दूसरी लहर ने हमारे स्वास्थ्य ढांचे को इस तरह झकझोर है कि हमारी हैसियत गरीब अफ्रीकी देशों से भी गई गुजरी साबित हुई है. यह अकारण नहीं है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश तक ने भारत में कोरोना हाहाकार को खूब मजाक उड़ाया है.

लेकिन हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था का कोरोना की इस दूसरी लहर के सामने इस तरह भरभराकर ढह जाना कोई हैरान करने वाला मसला नहीं है. हकीकत तो यह है कि हम अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था का यह सच जानते थे. हैरानी तो इस बात की है कि वल्र्ड बैंक ने हमें कई साल पहले ही इस संबंध में चेताया था. वल्र्ड बैंक ने साल 2017 में ही अपनी एक रिपोर्ट में हमारे स्वास्थ्य ढांचे की हकीकत को बेपर्दा कर दिया था. लेकिन हमारी इस खुलासे से आंखें नहीं खुली थीं, उल्टे हमने इस तरह की सच बयानी को विदेशी संस्थानों की साजिश करार दिया और बजाय अपने स्वास्थ्य ढांचे में कुछ सुधार करने के लोगों की राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़का दिया था.

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वल्र्ड बैंक ने कोरोना के आगमन के दो साल पहले ही कह दिया था, ‘हिंदुस्तान में हर साल 5 करोड़ से ज्यादा लोग इसलिए गरीब हो रहे हैं, क्योंकि हिंदुस्तान की स्वास्थ्य व्यवस्था बहुत ही बदहाल है. आम लोगों का रहने और खाने के बाद तीसरा सबसे ज्यादा खर्च स्वास्थ्य पर होता है. आम क्या निम्न मध्यवर्ग की भी हैसियत में यहां स्तरीय चिकित्सा व्यवस्था नहीं है और सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो गई है.’ वल्र्ड बैंक का यह निष्कर्ष कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हिंदुस्तान के आम लोगों के सामने एक नंगे सच के रूप में आया है. हाल में कोविड के चलते लोगों में आये स्वास्थ्य खर्च का जो आंकलन है, उसके मुताबिक जिस भी घर में कोरोना ने अपनी शिकंजेबंदी की है और मरीज को हाॅस्पिटल ले जाना पड़ा है, ऐसे घरों को औसतन 1 लाख 55 हजार रुपये कोरोना के इलाज में खर्च करने पड़े हैं. जबकि करोड़ों लोगों के पास चाहकर भी कोरोना संक्रमण के इलाज करने का सामथ्र्य नहीं है. कोरोना ने किस तरह हमारी आर्थिक कमर तोड़ दी है, इसका एक नमूना गंगा और दूसरी नदियों पर बहते शव और श्मशानों से इतर फुटपाथों से लेकर कहीं भी जलती चिताओं से जाना जा सकता है.

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