क्या गृहिणी होना एक सजा है? सब जानते हैं कि बदलते वक्त के साथ गृहिणी की भूमिका भी बदल गई है. लेकिन उस की जिम्मेदारियां कम न हो कर और बढ़ गई हैं. वैसे तो इस आधुनिक समय में घर के हर काम के लिए मशीनें मौजूद हैं, पर क्या मशीनें स्वयं कार्य कर लेती हैं? क्या गृहिणी की भागमभाग अब भी जारी नहीं है?
जिम्मेदारियां तो पहले भी थीं, लेकिन दायरा सीमित था. मगर आज दायरा असीमित है. आज महिला घर से ले कर बाहर तक की जिम्मेदारी के साथसाथ बच्चों की पढ़ाई से ले कर सब का भविष्य बनाने और भविष्य की बचत योजना तैयार करने में जुटी रहती है और वह भी पूरी एकाग्रता से.
गृहिणी की भागदौड़ सुबह से शुरू हो जाती है. फिर चाहे वह शहरी हो या ग्रामीण. रात को सब के बाद अपने आराम की सोचती है. रोज पति, बच्चों और घर के अन्य सदस्यों की देखरेख में इतनी व्यस्त रहती है कि खुद को हमेशा दोयम दर्जे पर ही रखती है. वह दूसरों की शर्तों, इच्छाओं और खुशियों के लिए जीने की इतनी आदी हो जाती है कि अगर किसी काम में जरा सी भी कमी रह जाए तो अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती है. लेकिन उस के बाद भी उसे ताने ही सुनने को मिलते हैं. उस के काम का श्रेय और सम्मान उस के हिस्से नहीं आता.
सम्मान की अपेक्षा
गृहिणी एक ऐसा सपोर्ट सिस्टम है, जो हर किसी को जीने का हौसला देता है. यह नहीं कि कामकाजी महिला कुछ नहीं. महिला चाहे घर में काम करे या बाहर, काम तो करती ही है. पर यहां बात उस महिला, उस गृहिणी की हो रही है, जिसे हमारा समाज बेकार समझता है. उस की न कोई छुट्टी, न कोई वेतन. सच कहें तो कोई गृहिणी वेतन चाहती भी नहीं. पर वह अपनों की जो सेवासहायता करती है उस के बदले सम्मान की अपेक्षा तो करती ही है और वह उस का मानवीय हक भी है.