घर का सपना हर गृहिणी का होता है पर अफसोस है कि न पिछले 6 सालों में और न उस से पहले 6 दशकों में हर घरवाली के सुखद सा घर दिया जा सके ऐसा काम सरकारें कर पाईं. दिल्ली जैसे समृद्ध राज्य में 60′ आबादी एक कमरे के मकान में रहने को मजबूर है. उस में पतिपत्नी भी रहें, वृद्ध मातापिता भी रहें और बच्चे भी अपना भविष्य बनाएं.
एक तिहाई आबादी तो दिल्ली की कच्ची बस्तियों में बने आधे कच्चे आधे पक्के मकानों में रह रही है जहां न गलियां सही हैं न सीवर है. पानी भी हर घर में आज भी नहीं पहुंचा है और टैंकर माफिया का राज आज भी चलता है.
दिल्ली जैसे बड़े शहर को आज 5 करोड़ मकानों की जरूरत है और पक्का है अगर ये बने भी तो भी जब तक बनेंगे जनसंख्या दोगुनी हो चुकी होगी.
अपना घर न होना एक गृहिणी पर एक अत्याचार है. उस का ज्यादा समय तो छोटे से घर में सामान को किसी तरह संभालना होता है. वह किसी को न बुला सकती है न किसी के जा सकती है. उस का सोशल दायरा मिसट जाता है. यह औरतें सिस्टम की गुलाम हो जाती हैं और कोसने भर से तो काम नहीं चलता कि पति को या सासससुर को कह डाला कि कैसे घर में आ गई. पति बेचारा कौन सा सुखी है?
इस दुर्गति का कारण सीधेसीधे सरकारी और सामाजिक नीतियां हैं. हमारी सरकार और समाज उन मुट्ठी भर लोगों के लिए सोच रही है जिन्होंने किसी तरह तिकड़म लगा कर पैसा कमा लिया इस में नेता भी हैं, अफसर भी, व्यापारी भी और धर्म के दुकानदार भी. इन के घर बड़े हैं. शानदार हैं और दिल्ली की ज्यादातर जगह ये ही घेरे हुए हैं.
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आप औरतों को भी घर का सुख मिल सके इस के लिए जरूरी है कि घरों को बनाने के नियम ढीले हों. यह तो मानना पड़ेगा कि लोग नौकरियों की तलाश में दिल्ली आएंगे ही और अब आ ही गए हैं तो 1-2 मंजिले मकानों की सरकारी जिद का क्या लाभ है. क्यों नहीं सरकार जमीन का पूरा उपयोग होने दे और 20-30 मंजिले मकान बनने दे.
ठीक है उस से सडक़ें ठसाठस भर जाएंगी, पानी, बिजली सीवर की समस्या खड़ी हो जाएगी पर कम से कम छत तो मिलेगी. सरकार आज भी जिद करती है कि मकान एक ऊंचाई से ज्यादा के न हों, उन का फ्लोर एरिया….नियत हो. लोग इन नियमों को तोड़ कर खिलापिला कर मकान बनाते हैं. आखिर इस का लाभ क्या है? जब लोगों को दिल्ली में काम की जगह के आसपास ही रहना है तो क्यों उन पर रोकटोक लगाई जाए?
मकानों को बनाने का खर्च भी बढ़ता जा रहा है क्योंकि लोहे, सीमेंट पर भारी टैक्स है. यह हर घरवाली पर टैक्स है. उस के मौलिक हक पर टैक्स है. उस को बेघर रखने की साजिश का टैक्स है. सीमेंट लोहा सस्ता होगा तो ढेरों मकान बनेंगे. जब मकान सस्ते होंगे तभी लोगों को छत मिलेगी. सरकार ने बहुत हाथ पैर मार लिए पिछले 7 साल में भी और उस से पहले 7 दशक में भी. मकान तो सरकार दे ही नहीं पाई उलटे जमीनों के नियम बना कर जो बनाना चाह रहे थे उन के काम में अड़ंगा डालती रही.
हर घरवाली को मकान मिले यह सरकार का कर्तव्य है. घर के अंदर का सामान चाहे जैसा हो पर बेघर औरत सरकार पर धब्बा, समाज की ढींग हांकने की आदत ही पोल खोलता है.
हम असल में आज भी गुफाओं में रहने को अच्छा मानते हैं. यह बात दूसरी कि 2 रात गुफा में रहने वाले 8000 करोड़ के विमान में चलते हैं.