युग चाहे कोई भी हो महिलाएं स्वयं को द्वापर युग में ही खड़ा पाती हैं, जबकि द्वापर युग से ले कर वर्तमान समय तक का एक लंबा फासला मानव सभ्यता ने तय किया है. इस लंबे समय में मानव सभ्यता ने काफी प्रगति की है, अनेक वैज्ञानिक तकनीकों का इजाद किया है, फिर भी महिलाओं को देखने का, उन्हें आंकने का समाज का नजरिया पुरातन सोच और मानसिकता के दायरे में ही सीमित है. समाज महिलाओं को अपनी कुंठित विचारधारा की पकड़ से मुक्त नहीं होने देना चाहता.

उन की आजादी पर अंकुश लगाने की उस की दलील इसी पुरातन सोच के इर्दगिर्द मंडराती रही है, जबकि आधुनिक समाज में महिलाएं स्वतंत्र हैं. उन्हें स्वतंत्रता के वे सारे अधिकार प्राप्त हैं जो हर इंसान को जन्म लेने के साथ प्राप्त होते हैं. विवाह संस्था को बचाने के नाम पर उन की प्रकृतिप्रदत आजादी को कैसे छीना जा सकता है? बच्चे पैदा करने के लिए उन्हें विवाह के बंधन में बांधा जाना अनिवार्य कैसे बताया जा सकता है?

महाभारतरामायण की कथाओं को सच मान कर उसे अपना आदर्श बताने वाला यह समाज क्या यह बता सकता है कि जहां मात्र देवताओं का आवाहन कर पुत्रों को जन्म देने की परंपरा रही है, कुंती अपनी कुंआरी अवस्था में सूर्य देव का आवाहन कर करण को जन्म दे सकती है, जब धृतराष्ट्र की बेवफाई से आहत हो कर गांधारी, वेदव्यास से पुत्रवती होने का आशीर्वाद प्राप्त कर 2 वर्ष तक गर्भधारण के पश्चात भी संतान नहीं प्राप्त करने पर क्रोधवश अपने गर्भ पर जोर से मुक्के का प्रहार किया जिस से उस का गर्भ गिर गया.

तब वेदव्यास ने गांधारी के गर्भ से निकले मांस पिंड पर अभिमंत्रित जल छिड़क कर 99 पुत्र और एक कन्या की उत्पत्ति की तब विवाह संस्था के नियम क्यों खंडित नहीं हुए थे बल्कि इन्हें आदर्श के रूप में देखा जाता रहा है. इन कथाओं के तथाकथित इस तरह के तमाम चरित्रों को बड़े ही आदर की दृष्टि से देखा जाता रहा है, इन्हें पूज्य माना जाता रहा है.

दोहरा मानदंड

देखा जाए तो हमारा यह समाज महिलाओं के लिए हमेशा से ही दोहरे मानदंड को अपनाता रहा है, नैतिकता की वेदी पर महिलाओं की बलि चढ़ाता रहा है. कभी संस्कृति की दुहाई दे कर? तो कभी तथाकथित शादी संस्था को बचाने के नाम पर महिलाओं को नियंत्रित करने की कोशिश करता रहा है.

हम सांस तो आधुनिक, वैज्ञानिक युग में ले रहे हैं लेकिन जी रहे हैं पुरातन सोच के तहत. आज का आधुनिक समाज जब इन कथाओं पर यकीन रख सकता है, उन्हें मानसम्मान दे सकता है? तो सरोगेसी जैसी वैज्ञानिक तकनीक पर उंगली कैसे खड़ी कर सकता है?

इन पुरातनी कहानियों में सरकंडे से भी बच्चे की उत्पत्ति की कहानी दर्ज है जोकि द्रोणाचार्य के जन्म से जुड़ी हुई है. महर्षि भारद्वाज मुनि गंगा में स्नान करती ध्रवाची को देख कर आसक्त हो गए जिस के कारण उन का वीर्य स्खलन हो गया जिसे उन्होंने द्रोण (यज्ञ कलश) में रख दिया जिस से बालक द्रोण पैदा हुए.

अधिकार से वंचित क्यों

अहिल्या से ले कर द्रौपदी, सीता और उर्मिला तक की कहानी जिस में महिलाओं को सिर्फ निष्ठा, कर्तव्यपरायणता और त्याग के ही पाठ पढ़ाए गए हैं. माधवी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. माधवी जिसे सिर्फ घोड़े के लिए बेचा गया बाद में उस का गृहस्थ जीवन के लिए कोई मोह ही नहीं बचा तो आधुनिक युग में सांस ले रही महिलाएं, लड़कियां शादी संस्था को बचाने के लिए उत्तरदायित्वों में क्यों बांधी जाएं?

क्यों आधुनिक काल की महिलाएं माधवी की तरह अपनी कोख का उपयोग सिर्फ दिव्य पुरुषों के जन्म के लिए करें? अपनी मनमरजी से वे अपनी कोख से बच्चे पैदा करने या न करने के नैसर्गिक अधिकार से वंचित क्यों की जाएं? क्या समाज और कानून की ऐसी सोच उन्हें पुरातन युग की ओर नहीं धकेल रही? क्यों महिलाओं की कोख सिर्फ पुरुषों की बनाई हुई दुनिया के हिसाब से बच्चे पैदा करने के लिए बाध्य हो?

संविधानप्रदत मौलिक अधिकार शादी करने या कुंआरी रहने के अधिकार को कैसे छीना जा सकता है जबकि द्वापर युग में कुंती कुंवारी मां बन सकती थी, सरकंडे से बच्चा पैदा हो सकता था, जल कुंड से बच्चे पैदा हो सकते थे तो सरोगेसी से क्यों नहीं? विवाह संस्था को बचाए रखने के नाम पर क्या यह महिलाओं के मौलिक अधिकार का हनन नहीं है?

सुप्रीम कोर्ट द्वारा अविवाहित महिलाओं को सरोगेसी के जरीए मां बनने की अनुमति देने की मांग वाली याचिका पर यह दलील कि मां बनने के और भी कई रास्ते हैं, वह शादी कर के ही बच्चा पैदा कर सकती है. बच्चे को गोद ले सकती है.

मौलिक अधिकारों की रक्षा

उस की यह दलील क्या महिलाओं की स्वतंत्रता मौलिक अधिकारों एवं जीवन जीने के अधिकारों पर अंकुश नहीं है? कोर्ट के लिए देश की विवाह संस्था की रक्षा किया जाना जरूरी है या किसी महिला के मौलिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा ज्यादा जरूरी है? पश्चिमी देशों की तर्ज पर नहीं चल सकने की हिदायत देना, विवाह से पहले बच्चा नहीं होना चाहिए ऐसा दिशा निर्देश कोर्ट के द्वारा दिया जाना, क्या महिलाओं से उन के जीवन जीने के अधिकारों को छीने जाने की कोशिश नहीं है? क्या यह निर्देश उन्हें पुरातन युग की ओर नहीं धकेल रहा?

इस से तो यही सिद्ध होता है न कि महिलाएं सांस तो स्वतंत्र भारत में ले रही हैं लेकिन जीवन जीने के लिए उन के इर्दगिर्द पुरातन सोच की दीवारें खड़ी की जा रही हैं.

जीने की आजादी

विवाह संस्था आखिर समाज के लिए इतना जरूरी क्यों है? क्या विवाह के नाम पर लिए गए फेरे, मंत्र उच्चारण अग्निकुंड, ग्रह नक्षत्र के मेल, मंगल दोष निराकरण, जन्मपत्रिका मिलान यह सबकुछ इस बात की गारंटी देते हैं कि विवाहित जोड़े के बीच कभी तलाक नहीं होगा?

जबकि आजाद भारत में संविधान के मूल अधिकारों में विशिष्ठ स्वातंर्त्य के अधिकार प्रत्येक नागरिक को प्राप्त हैं, प्रदत्त अधिकारों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी शामिल है. मूल अधिकारों में वर्णित अनुच्छेद ‘21’ किसी भी व्यक्ति को चाहे वह महिला हो या पुरुष सम्मान से और निजता से जीवन जीने की आजादी देता है.

तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा अविवाहित महिलाओं को सरोगेसी के जरीए मां बनने की अनुमति देने पर रोक क्या न्याय संगत है? इस संदर्भ में उस की दलील क्या आधुनिक समाज की महिलाओं को द्वापर युग की ओर, पुरानी सोच की ओर नहीं धकेल रहा है? इस पर विचार करने की जरूरत है.

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