इस साल के ख्यातिनाम अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार ‘बुकर’ के लिए गीतांजलि के उपन्यास ‘रेत की समाधि’ का चयन किया गया तो साहित्यप्रेमी झम उठे क्योंकि यह सम्मान हासिल करने वाली यह एकमात्र हिंदी पुस्तक है. 65 वर्षीय गीतांजलि ने अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत आम और औसत हिंदी लेखकों जैसे ही की थी. उन की पहली कहानी 1987 में एक साहित्यिक पत्रिका में छपी थी. उस के बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और एक के बाद एक 5 उपन्यास लिखे.
90 के दशक में प्रकाशित उन का उपन्यास ‘हमारा शहर उस बरस’ भी खासा चर्चित हुआ था. मूलतया अयोध्या कांड की सांप्रदायिक हिंसा और दंगों को उकेरते इस उपन्यास में धर्म की वजह से पैदा हुई हिंसा का सटीक चित्रण था जो बहुतों को नागवार गुजरा था खासतौर से उन लोगों को जो सच से डरते हैं और उसे ढक कर रखे रहना चाहते हैं.
खुन्नस खा गए कट्टरपंथी
उपन्यास के ये चुनिंदा अंश या वाक्य ही बता देते हैं कि क्यों गीतांजलि श्री कुछ खास किस्म के लोगों की नजरों में ‘रेत की समाधि’ को ले कर भी खटक रही हैं:
- उस बरस भगवानों की बाकायदा खेती हुई. बीज लगे जिन के ऊपर अंगुलभर मूर्तियां रखी गईं देवी जगदंबे की और जब धरती को फाड़ कर पौधा और देवी प्रकट हुईं तो जय जगदंबे से लाउड स्पीकर झनझनाने लगे. ऐसे कि दीवारें हिल गईं गिरजाघरों और मसजिदों की नींवें हिल गईं.
नींवें तो मंदिरों की भी हिलीं. जिस तरह मुल्क में ईंटें टूटीं उस से तो शायद सच यह है कि नींव तो मुल्क की भी हिली. धूल के गुबार थे, भीड़ की कुचलमकुचलाई थी, लाठीपत्थरों की बारिश थी.