प्यार करने में कितने जोखिम हैं, यह शीरीं फरहाद, लैला मंजनू से ले कर शंकुलता दुष्यंन, आहिल्या इंद्र, हिंदी फिल्म ‘संगम’ जैसे तक बारबार सैंकड़ों हजार बार दोहराया गया है. मांबाप, बड़ों, दोस्तों, हमदर्दों की बात ठुकरा कर दिल की बात को रखते हुए कब कौन किस गहराती से प्यार कर बैठे यह नहीं मालूम. दिल्ली में लिवइन पार्टनर की अपनी प्रेमिका की हत्या करने और उस के शव के 30-35 टुकड़े कर के एकएक कर के कई दिनों तक फेंकने की घटना पूरे देश को इसी तरह हिला दिया है जैसा निर्भया कांड में जबरन वहशी बलात्कार ने दहलाया था.

इस मामले में लडक़ी के मांबाप की भी नहीं बनती और लडक़ी बिना बाप को बताए महीनों गायब रही और बाप ने सुध नहीं ली. इस बीच यह जोड़ा मुंबई से दिल्ली आ कर रहने लगा और दोनों ने काम भी ढूंढ़ लिया पर निरंतर ङ्क्षहसा के बावजूद लडक़ी बिना किसी दबाव के बावजूद प्रेमी को छोड़ कर न जा पाई.

ज्यादा गंभीर बात रही कि लडक़े को न कोई दुख या पश्चाताप था न ङ्क्षचता. लडक़ी को मारने के बाद, उस के टुकड़े फ्रिज में रख कर वह निश्ङ्क्षचतता से काम करता रहा.

जो चौंकाने वाला है, वह यह व्यवहार है. अग्रेजी में माहिर यह लडक़ा आखिर किस मिट्टी का बना है कि उसे न हत्या करने पर डर लगा, न कई साल तक जिस से प्रेम किया उस का विद्रोह उसे सताया. यह असल में इंट्रोवर्ट होती पीढ़ी की नई बिमारी का एक लक्षण है. केवल आज में और अब में जीने वाली पीढ़ी अपने कल का सोचना ही बंद कर रही है क्योंकि मांबाप ने इस तरह की प्रोटेक्शन दे रखी थी कि उसे लगता है कि कहीं न कहीं से रुपए का इंतजाम हो ही जाएगा.

जब उस बात में कुछ कमी होती है, जब कल को सवाल पूछे जाते हैं, कल को जब साथी कुछ मांग रखता है जो पूरी नहीं हो पाती तो बिफरता, आपा खोता, बैलेंस खोना बड़ी बात नहीं, सामान्य सी है. जो पीढ़ी मांबाप से जब चाहे जो मांग लो मिल जाएगा की आदी हो चुकी हो, उसे जरा सी पहाड़ी भी लांघना मुश्किल लगता है, उसे 2 मंजिल के लिए भी लिफ्ट चाहिए, 2 मील चलने के लिए वाहन चाहिए, और न मिले तो वह गुस्से में कुछ भी कर सकती है.

यह सबक मांबाप पढ़ा रहे हैं. मीडिया सिखा रहा है. स्कूली टैक्सट बुक्स इन का जवाब नहीं है. रिश्तेनातेदार हैं नहीं जो जीवन के रहस्यों को सुलझाने की तरकीब सुझा सकें. और कुछ है तो गूगल है. व्हाट्सएप है, फेसबुक है, इंस्टाग्राम है. ट्विटर है जिन पर समझाने से ज्यादा भडक़ाने की बातें होती है.

पिछले 20-25 सालों से धर्म के नाम पर सिर फोड़ देने का रिवाज सरकार का हिस्सा बन गया है. हिंसक देवीदेवताओं की पूजा करने का हक पहला बन गया है. जिन देवताओं के नाम पर हमारे नेता वोट मांगते हैं, जिन देवताओं के चरणों में मांबाप सिर झुकाते हैं, जिन देवीदेवताओं के जुलूस निकाले जाते हैं सब या तो हिंसा करने वाले हैं या हिंसा के शिकार हैं.

ऐसे में युवा पीढ़ी का विवेक, डिस्क्रीशन, लौजिक दूसरे के राइट्स के बारे में सोचने की क्षमता आएगी कहां से आखिर? न मांबाप कुछ पढऩे को देते है, न बच्चे कुछ पढ़ते हैं. न मनोविज्ञान के बारे में पक जाता है न जीवन जीने के गुरों के बारे में. नेचुरल सैक्स की आवश्यकता को संबंधों का फेवीफौल मान कर साथ सोना साथ निभाने और लगातार साथ रातदिन महीनों सालों तक रहने से अलग है.

युवाओं को दोष देने की हमारी आदत हो गई है कि वे भटक गए हैं. जबकि असलियत यह है कि भटकी वह जैनरेशन है जिस ने एमरजैंसी में इंदिरा गांधी के गुणगान किया, जिस ने ओबीसी रिजर्वेशन पर हल्ला किया, जिस के एक धड़े ने खालिस्तान की मांग की और फिर दूसरे धड़े ने मांगने वालों को मारने में कसर न छोड़ी. भटकी वह पीढ़ी है जिस ने हिंदू मुसलिम का राग अलापा, जिसने बाबरी मसजिद बनवाई. जिस ने हर गली में 4-4 मंदिर बनवा डाले जिस ने लाईब्रेरीज को खत्म कर दिया, जिस ने बच्चों के हाथों में टीवी का रिमोट दिया.

आज जो गुनाह हमें सता रहा है, परेशान कर रहा है वह इन दोने उस पीढ़ी से सीख कर किया जो देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार है, जो बाबरी मसजिद तोडऩे की जिम्मेदार है, जो करप्शन की गुलाम है. जो पैंपरिंग को पाल देना समझती है. जरा सा कुरेदेंगे तो सदा बदबूदार मैला अपने दिलों में दिखने लगेगा, इस युवा पीढ़ी में नहीं जिसे जीवन जीने का पाठ किसी ने पढ़ाया ही नहीं.

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