कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पकौड़ा बेचने को भी रोजगार बताया तो पूरे देश में हंगामा मच गया. देशभर में प्रधानमंत्री की खिल्ली उड़ाई गई. विपक्षी पार्टियों ने तो यह शोर मचाया कि समोसेपकौड़े या चाय बेचना भला कोई रोजगार कैसे हो सकता है. ऐसा कह कर सरकार नौकरियां पैदा करने में अपनी नाकामी छिपा रही है.
विपक्ष का आरोप अपनी जगह सही है, पर यह इस मानसिकता को भी उजागर करता है कि नौकरी सिर्फ सरकारी होनी चाहिए. सरकारी नौकरी का यह मोह कितना विकट है, इस का उदाहरण इस साल मार्च में तब देखने को मिला जब महाराष्ट्र में मुंबई पुलिस में सिपाही की भरती के सिर्फ 1,137 पद निकले, लेकिन इस के लिए 2 लाख से ज्यादा युवाओं के आवेदन आए.
कुछ ऐसा ही हाल उत्तर प्रदेश में शिक्षक भरती के लिए मांगे गए आवेदन के समय हुआ, जिस में कुछ हजार पदों के लिए 10 लाख से ज्यादा एप्लीकेशंस आ गईं. जिस देश में नौकरियों का मामला एक अनार, सौ बीमार वाला हो, वहां कुछ सौ नौकरियों के लिए लाखों आवेदन आ जाना हैरान नहीं करता. पर महाराष्ट्र में सिपाही बनने की कतार में करीब 2 हजार ऐसे लोग भी दिखे जिन के पास मैडिकल, ला, एमबीए या इंजीनियरिंग आदि की डिगरियां थीं, जबकि इस नौकरी के लिए जरूरी शैक्षिक योग्यता सिर्फ 8वीं पास थी.
यह ऐसा विरोधाभास है जो इस से पहले भी कई बार चपरासी, सफाईकर्मी जैसे कर्मचारियों की भरतियों में नजर आ चुका है. यों तो कोई पद छोटा या बड़ा नहीं होता पर इस बात से इत्तफाक रखने के बावजूद डाक्टरोंइंजीनियरों को चपरासीसिपाही बनने की लाइन में देखना हैरानी पैदा करता है.