देश कब क्या सोचे, क्या चिंता करे, क्या बोले, क्या सुने यह भी अब पौराणिक युग की तरह देश का एक वर्ग जो धर्म की कमाई पर जिंदा ही नहीं मौजमस्ती और शासन कर रहा है तय कर रहा है. देश के सामने जो बेरोजगारी की बड़ी समस्या है. उस पर ध्यान ही नहीं देने दिया जा रहा. धर्मभक्तों के खरीदे या बहकाए गए टीवी चैनल या ङ्क्षप्रट मीडिया बेरोजगारों को दुर्दशा की ङ्क्षचता नहींं कर रहे उन की हताशा को आवाज नहीं दे रहे.

हर साल करोड़ों युवा देश में बेरोजगारों की गिनती में बढ़ रहे हैं पर उन के लायक न नौकरियां है, न काम धंधे. यह गनीमत है कि आज जो युवा पढ़ कर बेरोजगारों की लाइनों में लग रहे हैं, वे अपने मांबाप 2 या ज्यादा से ज्यादा 3 बच्चे में से एक है और मांबाप अपनी आय या बधन से उन्हें पाल सकते हैं. 20-25 साल तक के ही नहीं, 30-35 साल तक के युवाओं को मातापिता घर में बैठा कर खिला सकते हैं क्योंकि इस आयु तक आतेआते इन मांबाप के अपने खर्च कम हो जाते हैं.

पर यह बेरोजगारी आत्मसम्मान और अपना विश्वास पर गहरा असर कर रही है और अपनी हताशा को ढंकने के लिए ये युवा बेरोजगार धर्म का झंडा ले कर खड़े हो जाने लगे हैं. ये भी भक्तों की लंबी फौज में शामिल हो रहे है और भक्ति को देश निर्माण का काम समझ कर खुद को तसल्ली दे रहे हैं कि वे कमा नहीं रहे तो क्या. देश और समाज के लिए कुछ तो कर रहे हैं.

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