यहां से वहां तक आशंकाएं ही आशंकाएं छाई हुई हैं. बिस्तर पर आंख खुलते ही यह हिम्मत नहीं होती कि लाइट जला कर देख लें कि कितना बजा है. लाइट जलाने पर उस की चकाचौंध के बाद नींद टूट जाती है, उधर डर समाया रहता है कि कहीं घूमने के लिए देर न हो जाए.

सुबह देर हो जाए तो ट्रैफिक बहुत बढ़ जाता है और डर लगा रहता है कि तेज गति से भागता हुआ कोई ट्रक या ट्रैक्टर रौंदता हुआ न निकल जाए. सुबहसुबह ट्रक डर के मारे तेज भाग रहे होते हैं कि शहर में प्रवेश की समय सीमा रहते बाहर निकल जाएं.

घूमने निकलते समय शंका बनी रहती है कि पता नहीं आज गुप्ताजी आएंगे कि नहीं, उन की कल की कही बात का आज जवाब देना है.

मौसम का भी पता नहीं रहता, कभी इस कदर गरम हो जाता है कि पसीना आने लगता है. शर्ट पूरी बांह की पहनूं या आधी बांह की ही रहने दूं.

पत्नी सोती रहती है इसलिए बाहर का ताला लगा कर जाता हूं. पर आशंका बनी रहती है कि इस बीच कोई आया न हो, या उसे ही बाहर निकलने का कोई काम आ जाए, लौटने में देर नहीं होनी चाहिए.

दूध वाले का भी जवाब नहीं, रोजरोज डराता रहता है, पानी तो उस में मिला ही हुआ रहता है किंतु पड़ोसी ने बताया था कि एक बार किसी को ज्यादा दूध चाहिए था सो उस ने बाकी के दूध में उतना ही पानी मिला कर आगे देने वालों की कमी पूरी कर ली थी. तय नहीं रहता कि आज कितना पतला दूध होगा. चलो, पतला तो ठीक है पर रोजरोज की खबरें, कहीं दूध में डिटर्जेंट मिले होने की, कहीं पाउडर मिले होेने की, ऐसा लगता है दूध नहीं जहर ले रहे हों. दूध का बरतन नहीं सुकरात द्वारा लिए अंतिम घूंट का प्याला हो.

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