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सुरेश क्लीवलैंड की एक एयरकंडीशनिंग फर्म में इंजीनियर था. अमेरिका में रहते उसे करीब 7 साल हो गए थे. वेतन अच्छा था. जल्दी ही उस ने जीवन की सभी सुविधाएं जुटा लीं. घर वालों को पैसे भी भेजने लगा. आनेजाने वालों के साथ घर वालों के लिए अनेक उपहार जबतब भेजता रहता.

लेकिन न वह स्वदेश आ कर घर वालों से मिलने का नाम लेता और न ही शादी के लिए हामी भरता. उस के पिता अकसर हर ईमेल में किसी न किसी कन्या के संबंध में लिखते, उस की राय मांगते, पर वह टाल जाता. बहुत पूछे जाने पर उस ने साफ लिख दिया कि मुझे अभी शादी नहीं करनी. 8वें साल जब उस के पिता ने बारबार लिखा कि उस की मां बीमार रहती है और वह कुछ दिन की छुट्टी ले कर घर आ जाए तो वह 6 माह की छुट्टी ले कर स्वदेश की ओर चल पड़ा.

घर वालों की खुशी का ठिकाना न रहा. कई रिश्तेदार हवाईअड्डे पर उसे लेने पहुंचे. मातापिता की आंखें खुशी से चमक उठीं. सुरेश लंबा तो पहले ही था, अब उस का बदन भी भर गया था और रंग निखर आया था. घर वालों व रिश्तेदारों के लिए वह बहुत से उपहार लाया था. सब ने उसे सिरआंखों पर बिठाया. सुरेश की मां की बहुत इच्छा थी कि इस अवधि में उस की शादी कर दे. सुरेश ने तरहतरह से टाला, ‘‘बीवी को तो मैं अपने साथ ले जाऊंगा. फिर तुझे क्या सुख मिलेगा? क्लीवलैंड में मकान बहुत महंगे मिलते हैं. मैं तो सुबह 8 बजे का घर से निकला रात 10 बजे काम से लौट पाता हूं. वह बैठीबैठी मक्खियां मारेगी.’’ पर मां ने उस की एक नहीं सुनी. छोटे भाईबहन भी थे. आगे का मलबा हटे तो उन के लिए रास्ता साफ हो.

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सुंदर कमाऊ लड़का देख कर कुंआरी कन्याओं के पिता ने पहले ही चक्कर काटने आरंभ कर दिए थे. जगहजगह से रिश्तेदारों की सिफारिशें आने लगीं. दबाव बढ़ने लगा, खाने की मेज पर शादी के लिए आए प्रस्तावों पर विचारविमर्श होता रहता. सुरेश को न कोई लड़की पसंद आती थी, न कोई रिश्ता. हार कर उस के पिता ने समाचारपत्र में विज्ञापन और इंटरनैट में एक मैट्रीमोनियल साइट पर सुरेश का प्रोफाइल डाल दिया. चट मंगनी, पट ब्याह वाली बात थी. दूसरे ही दिन ढेर सारे फोन और ईमेल आने लगे. उन बहुत सारे ईमेल और फोन में सुरेश ने 3 ईमेल को शौर्टलिस्ट किया. इन तीनों लड़कियों के पास शिक्षा की कोई डिगरी नहीं थी. वे बहुत अधिक संपन्न घराने की भी नहीं थीं. इन के परिवार निम्नमध्यवर्ग से थे.

घर वाले हैरान थे कि इतना पढ़ालिखा, काबिल लड़का और इस ने बिना पढ़ीलिखी लड़कियां पसंद कीं. फिर कोई ख्यातिप्राप्त परिवार भी नहीं कि दहेज अच्छा मिले या वे लोग आगे कुछ काम आ सकें. पर क्या करते? मजबूरी थी, शादी तो सुरेश की होनी थी. तीनों लड़कियों को देखने का प्रोग्राम बनाया गया. एक लड़की बहुत सुंदर थी, पर छरहरे बदन की थी. दूसरी लड़की का रंग सांवला था, पर नैननक्श बहुत अच्छे थे. स्वास्थ्य सामान्य था, तीसरी लड़की का रंगरूप और स्वास्थ्य भी बहुत अच्छा था.

सुरेश ने तीसरी लड़की को ही पसंद किया. घर वालों को उस की पसंद पर बड़ा आश्चर्य हुआ. शिक्षादीक्षा के संबंध में सुरेश ने दोटूक उत्तर दे दिया, ‘‘मुझे बीवी से नौकरी तो करानी नहीं. मैं स्वयं ही बहुत कमा लेता हूं.’’ रंगरूप के संबंध में उस की दलील थी, ‘‘मुझे फैशनपरस्त, सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाली गुडि़या नहीं चाहिए. मुझे तो गृहस्थी चलाने के लिए औरत चाहिए.’’ सुनने वालों की आंखें फैल गईं. कितना सुंदर, पढ़ालिखा, ऊंचा वेतन पाने वाला लड़का और कैसा सादा मिजाज. दोचार हमजोलियों ने मजाक में अवश्य कहा कि यह तो चावल में उड़द या गिलट में हीरा जड़ने वाली बात हुई. पर जिसे पिया चाहे  ही सुहागिन.

लड़की वालों की तो जैसे लौटरी खुल गई थी. घर बैठे कल्पना से परे दामाद जो मिल गया था. वरना कहां सुदेश जैसी मिडिल पास, साधारण लड़की और कहां सुरेश जैसा सुंदर व सुसंपन्न वर. शादी धूमधाम से हुई. सुरेश और सुदेश हनीमून के लिए नैनीताल गए. एक होटल में जब पहली रात आमोदप्रमोद के बाद सुरेश सो गया तो सुदेश कितनी ही देर तक खिड़की के किनारे बैठी कभी झील में उठती लहरों की ओर, कभी आसमान के तारों को निहारती रही. उस के हृदय में खुशी की लहरें उठ रही थीं और उसे लग रहा था कि जैसे आसमान के सारे सितारे किसी ने उस के आंचल में भर दिए हैं. फिर वह लिहाफ उठा कर सुरेश के पैरों की तरफ लेट गई. सुरेश के पैरों को छाती से लगा कर वह सो गई.

15दिन जैसे पलक झपकते बीत गए. सुबह नाश्ता कर के हाथ में हाथ डाले नवदंपती घूमने निकल जाते. शाम को वे अकसर नौकाविहार करने या पिक्चर देखने चले जाते. सोने के दिन थे और चांदी की रातें. सुदेश को कभीकभी लगता कि यह सब एक सुंदर सपना है. वह आंखें फाड़फाड़ कर सुरेश को घूरने लगती. उस की यह दृष्टि सुरेश के मर्मस्थल को बेध देती. वह गुदगुदी कर के या चिकोटी काट कर उसे वर्तमान में ले आता. सुदेश उस की गोद में लेट जाती. सुरेश की गरदन में दोनों बांहें डाल कर दबे स्वर में पूछती, ‘‘जिंदगीभर मुझे ऐसे ही प्यार करते रहोगे न?’’ और सुरेश अपने अधर झुका कर उस का मुंह बंद कर देता, ‘‘धत पगली,’’ कह कर उस के आंसू पोंछ देता.

नैनीताल से लौटी तो सुदेश के चेहरे पर नूर बरस रहा था. तृप्ति का भी अपना अनोखा सुख होता है. सुरेश की छुट्टियां खत्म होने वाली थीं. सुदेश को वह अपने साथ विदेश ले जाना चाहता था. उस की मां ने दबी जबान से कहा, ‘‘बहू को साल 2 साल यहीं रहने दे. सालभर तक रस्मरिवाज चलते हैं. फिर हम को भी कुछ लगेगा कि हां, सुरेश की बहू आ गई,’’ पर सुरेश ने एक न मानी. उस का कहना था कि क्लीवलैंड में भारतीय खाना तो किसी होटल में मिलता नहीं. घर पर बनाने का उस के पास समय नहीं. पहले वह डबलरोटी, अंडे आदि से किसी प्रकार काम चला लेता था. पर जब सुदेश को अमेरिका में ही रहना है तो बाद में जाने से क्या फायदा? वहां के माहौल में वह जितनी जल्दी घुलमिल जाए उतना ही अच्छा.

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वह सुदेश को साथ ले कर अमेरिका रवाना हो गया. जहाज जब बादलों में विचरने लगा तो सुदेश भी खयालों की दुनिया में खो गई. शादी के बाद वह जिस दुनिया में रह रही थी उस की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. उस ने तो कभी जहाज में बैठने की भी कल्पना नहीं की थी. उस के परिवार में भी शायद ही कोई कभी जहाज में बैठा हो. नैनीताल का भी उस ने नाम ही सुना था. पहाड़ों को काट कर बनाए गए प्रकृति के उस नीरभरे कटोरे को उस ने आंखभर देखने के बारे में भी नहीं सोचा था. पर वहां उस ने जीवन छक कर जिया. वहां बिताए दिनों को क्या वह जीवनभर भूल पाएगी. पूरी यात्रा में वह तरहतरह की कल्पनाओं में खोई रही. वह स्वयं को धरती से ऊपर उठता हुआ महसूस कर रही थी.

सुरेश इस पूरी यात्रा में गंभीर बना रहा. सुदेश का मन करता कि वह उस का हाथ अपने हाथ में ले कर प्रेम प्रदर्शित करे, पर तमाम लोगों की उपस्थिति में उसे लाज लगती थी. यह नैनीताल के होटल का कमरा तो था नहीं. पर थोड़ी देर बाद ही उस का जी घबराने लगता था. उसे सुरेश अजनबी सा लगने लगता था. जहाज के बाद टैक्सी की यात्रा कर के अगली संध्या जब वे गंतव्य स्थान पर पहुंचे तो सुदेश का मन कर रहा था क वह सुरेश के कंधे पर सिर टेक दे और वह उसे बांहों का सहारा दे कर धीरेधीरे फ्लैट में ले चले. कड़ाके की सर्दी थी. सुदेश को कंपकंपी महसूस हो रही थी. पर सुरेश विचारों में खोया गुमसुम, सूटकेस लिए आगेआगे चला जा रहा था.

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