सुदेश की मां ने अपने पति को आड़े हाथों लिया, ‘‘मुझे तो दाल में काला पहले ही नजर आया था, पर तब कैसे ठसक कर बोले थे कि तुझे तो चांद में भी दाग नजर आता है.’’ सुदेश के पिता ने माथा पीट लिया, ‘‘वाकई मेरी आंखें चुंधियां गई थीं. हमें अपनी हैसियत देखनी चाहिए थी. हमारे लिए तो सतवंत जैसा सीधासादा आदमी ही ठीक रहता.’’ अगले दिन सतवंत ने सुदेश के पिता से अकेले में बातचीत की. क्लीवलैंड में जो कुछ हुआ, उस के बारे में बतलाया और वकील दोस्त द्वारा दिए गए जरूरी कागज संभलवाए. इन में सुरेश और सूजेन की क्लीवलैंड में 6 साल पहले हुई शादी की रजिस्ट्री की नकल भी थी. वहां के एक साप्ताहिक में प्रकाशित नवदंपती का चित्र और शादी के प्रकाशित समाचार की कतरनें भी थीं.
सतवंत ने कहा, ‘‘आप पूरे मामले पर ठंडे दिमाग से सोच लें. दोस्तों और रिश्तेदारों से सलाह ले लें, फिर जैसा उचित समझें, करें. यहां की अदालत में धोखाधड़ी का मुकदमा चलाया जा सकता है. सुरेश को दिन में तारे नजर आ जाएंगे. यहां आ कर पैरवी करने में नानी याद आ जाएगी. अखबारों में भी खबरें छपेंगी. खानदान की शान की सब ठसक निकल जाएगी. इस से विदेशों में बसे उन भारतीयों को भी सबक मिलेगा, जो इस तरह की हरकतें करते हैं.’’ अंतिम वाक्य कहतेकहते उस का गला भर आया. आंखों से आंसू झरने लगे. तब उस ने अपनी इकलौती बहन का किस्सा सुनाया. सुदेश के पिता ने उसे छाती से लगा लिया. आंसू पोंछे. अपनी गरीबी, साधनहीनता का दुखड़ा रोया. मुकदमे की भागदौड़, परेशानी उठाने में असमर्थता प्रकट की. सतवंत ने यह कह कर विदा ली, ‘‘मेरे लायक सेवा हो तो बता देना. अमृतसर का मेरा यह पता है. मुझे तो टैक्सी चलानी है. वहां नहीं, यहीं चला लूंगा. जैसा ठीक समझें, तय कर लें.’’