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घड़ी ने टिकटिक कर के 2 का घंटा बजाया. आरामकुरसी पर पसरी मैं शून्य में देखती ही रहती यदि घड़ी की आवाज ने मुझे चौंकाया न होता. उठ कर नवीन के पास आई. बरसों पुराना वही तरीका, पुस्तक अधखुली सीने पर पड़ी हुई और चश्मा आंखों पर लगा हुआ.

चश्मा उतार कर सिरहाने रखा. पुस्तक बंद कर के रैक में लगाई और लैंप बुझा कर बाहर आ गई. अब तो यह प्रतिदिन की आदत सी हो गई है. जिस दिन बिना दवा खाए नींद आ जाती, वह चमत्कारिक दिन होता.

बालकनी में खड़ी मैं अपने बगीचे और लौन को देखती रही. अंदर आ कर फिर कुरसी पर पसर गई. घड़ी की टिकटिक हर बार मुझे एहसास करा रही थी कि इस पूरे घर में इस समय वही एकमात्र मेरी सहचरी और संगिनी है.

बड़ी सी कोठी, 2-2 गाडि़यां, भौतिक सुविधाओं से भरापूरा घर, समझदार पति और 2 खूबसूरत होनहार बेटे, एक नेवी में इंजीनियर, दूसरा पायलट. ऐसे में मु झे बेहद सुखी होना चाहिए लेकिन स्थिति इस के बिलकुल विपरीत है.

घड़ी की टिकटिक मेरी सहचरी है और मेरे अतीत की साक्षी भी. मेरा अतीत, जो समय की चादर से लिपटा था, आज फिर खुलता गया.

तब पूरा शहर ही नहीं, समूचा देश हिंसा की आग में जल रहा था. 2 संप्रदायों के लोग एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे. बहूबेटियों की इज्जत लूट कर उन्हें गाजरमूली की तरह काटा जा रहा था. चारों तरफ सांप्रदायिकता की आग नफरत और हिंसा की चिनगारियां उगल रही थी.

हमारा घर मुसलमानों के महल्ले के बीच अकेला था. सांप्रदायिक हिंसा की लपटें फैलते ही लोगों की आंखें हमारे घर की तरफ उठ गई थीं.

एक रात मैं, अम्मा और बाबूजी ठंडे चूल्हे के पास बैठे सांस रोके बाहर का शोरशराबा सुन रहे थे. अचानक पीछे का दरवाजा किसी ने खटखटाया. अम्मा ने मुझे अपने सीने से चिपटा कर बाबूजी से कहा था, ‘नहीं, मत खोलना. पहले मैं इसे जहर दे दूं.’

तभी बाहर से रहीम चाचा की आवाज आई थी, ‘संपत भैया, मैं हूं रहीम. दरवाजा खोलो.’ सांस रोके हम खड़े रहे. बाबूजी ने दरवाजा खोला तो रहीम चाचा ने  झटपट मेरा और अम्मा का हाथ थामा, ‘चलो भाभी, मेरे घर. अब यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. इंसानियत पर हैवानियत का कब्जा हो गया है. चलो.’

जेवर, पैसा, कपड़े सब छोड़ कर हम रहीम चाचा के घर आ गए. पूरा दिन हम वहां एक कमरे में छिप कर बैठे रहे. लोग पूछपूछ कर लौट गए पर रहीम चाचाजी और फरजाना ने जबान नहीं खोली.

तीसरे दिन रहीम चाचा ने बाबूजी को 3 टिकट दिल्ली के पकड़ाए थे, ‘सुबह 4 बजे टे्रन जाती है. बाहर गाड़ी खड़ी है. तुम लोग चले जाओ, रात का सन्नाटा है. बड़ी मुश्किल से टिकट और गाड़ी का इंतजाम हो सका है.’

एक अटैची पकड़ाते हुए चाची ने कहा था, ‘इस में थोड़े पैसे और कपड़े हैं. माहौल ठंडा पड़ते ही तुम वापस आ जाना. हम हैं न.’

उस समय मैं फरजाना से, अम्मा चाची से और बाबूजी रहीम चाचा से मिल कर कितना रोए थे. होली, ईद संगसंग मनाने वाला महल्ला कितना बेगाना हो गया था हमारे लिए.

टे्रन में बैठने के बाद अम्मा ने राहत की सांस ली थी. बाबूजी ने बेबसी से शहर को निहारा था.

टे्रन अभी जालंधर ही पहुंची थी कि अचानक बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा. खामोशी से सबकुछ सहते बाबूजी को देख मैं ने सोचा था, सबकुछ सामान्य है पर यह हादसा उन्हें घुन की तरह खा रहा था. लगीलगाई दुकान, मकान और जोड़ा हुआ बेटी के लिए ढेरों दहेज…सब छोड़ कर आना उन्हें तोड़ कर रख गया.

चलती हुई ट्रेन में हम करते भी क्या? तभी सामने बैठे एक सज्जन ने हमें ढाढ़स बंधाया था, ‘देखिए, मैं डाक्टर हूं. आप इन्हें यहीं उतार लें, आगे तक जाना इन की जान के लिए खतरनाक हो सकता है.’

‘आप…’

‘हां, मैं, यहीं सैनिक अस्पताल में डाक्टर हूं.’

मैं ने अम्मा की तरफ देखा और उन्होंने मेरी तरफ. उस समय 17 वर्षीया मैं अपने को बहुत बड़ी समझने लगी थी.

अस्पताल में नवीन नाम के उस डाक्टर ने हमारी बड़ी मदद की. बाबूजी को सघन चिकित्सा कक्ष में रखा. हमें भी वहीं रहने का स्थान मिल गया. मां ने उन्हें सबकुछ बता दिया.

एक हफ्ते के अंदर ही नवीन ने एक कमरा दिलवा दिया जिस में एक अटैची के साथ हम सब को गृहस्थी शुरू करनी थी. थोड़े से बरतन, चूल्हा और राशन नवीन ने भिजवाए थे. मना करने पर कहा था उन्होंने, ‘मुफ्त में नहीं दे रहा हूं. बाबूजी ठीक हो जाएंगे तो उन्हें नौकरी दिलवा दूंगा.’

एक दिन बाबूजी को मैं देखने गई. वे ठीक लगे. मैं उन्हें घर ले जाना चाहती थी पर डा. नवीन उस समय ड्यूटी पर नहीं थे. घर पास ही था, पता पूछ कर जब मैं उन के घर पहुंची तो वहां गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था.

नौकर ने बताया था, ‘डाक्टर साहब स्टेशन गए हैं, अपने बेटे को लेने. वह शिमला में पढ़ता है. छुट्टियों में आ रहा है.’

डाक्टर साहब की पत्नी कहां हैं, पूछने से पूर्व मेरी दृष्टि फ्रेम में जड़ी एक तसवीर पर चली गई. सुहागन स्त्री की तसवीर जिस पर फूलों की माला पड़ी थी. बगल में ही डा. नवीन की भी फोटो रखी थी.

नौकर की खामोशी मुझे नवीन की उदासी समझा गई. उस दिन पहली बार नवीन के प्रति एक सहानुभूति की लहर ने मेरे अंदर जन्म लिया था.

2-4 दिनों के बाद ही बाबूजी घर आ गए. मैं ने 2 बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया. खुद 11वीं तक पढ़ी थी. कुछ पैसे आने लगे. मां ने अचार, बडि़यां, पापड़ और मसाले बनाने का काम शुरू किया.

बाबूजी दुकानदारी के साथ प्रैस के काम का भी अनुभव रखते थे. इसलिए नवीन ने उन्हें एक प्रैस में छपाई का काम दिलवा दिया. फिर तो डुगडुग करती हमारी गृहस्थी चल निकली.

एक दिन एक खूबसूरत युवक हमारे घर का पता पूछता आ गया. उसे बाबूजी से काम था, लेकिन मु झे देखते ही बोला, ‘आप संगीता हैं न?’

‘हां, पर आप?’

‘मैं चंदन हूं, नवीन भैया का छोटा भाई.’

‘ओह, नमस्ते,’ मैं ने नजरें नीची कर के कहा तो वह मुसकरा दिया. उस की वह मुसकराहट मुझे अंदर तक छू गई. नवीन के लिए एक बार मेरे मन में सहानुभूति की लहर उठी थी, पर दिल कभी नहीं धड़का था. किंतु आज चंदन की काली आंखों के आकर्षण से न केवल मेरा दिल धड़कने लगा, बल्कि मैं स्वयं मोम सी पिघलने लगी.

नवीन दूसरे दिन आ कर हमें निमंत्रणपत्र दे गए थे. चंदन ने डाक्टरी पूरी कर ली थी. उन के बेटे मोहित का जन्मदिन भी था. उन दोनों की खुशी में वे एक पार्टी दे रहे थे.

फरजाना का सितारों से जड़ा गुलाबी सूट, जो अच्छे लिबास के नाम पर एकमात्र पहनावा था, पहन कर और नकली मोतियों का सैट गले में डाल कर मैं तैयार हो गई थी. मां ने मु झे गर्व से ऊपर से नीचे तक निहारा था. मैं लजा गई थी. बाबूजी के साथ मैं नवीन के घर पहुंची.

दरवाजे पर ही चंदन अपने दोस्तों के बीच खड़ा दिख गया. मेरी तरफ उस की पीठ थी लेकिन मैं चाहती थी कि वह मेरी तरफ देखे. मेरी सुंदरता उस पर असर करे.

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