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निशा के दिल और दिमाग में शून्यता गहराती जा रही थी. रोतेरोते रमिता का चेहरा लाल पड़ गया था, आंखों की पलकें सूज आई थीं. अपनी औलाद की आंखों में इतने सारे दुख की परछाइयां देख कर कौन मां विचलित नहीं हो जाएगी. इसलिए निशा का तड़प उठना भी स्वाभाविक ही था. वह एक बार रमिता को देखती, तो एक बार उस की गोद में पड़ी उस मासूम बच्ची अंकिता को जो दुनियादारी से बेखबर थी.

2 वर्षों पहले ही कितनी धूमधाम से निशा ने रमिता और तुषार का ब्याह किया था. दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे. एकदूसरे से प्रेम करते थे, फिर.अचानक निशा की नजर दरवाजे पर खड़ी शांताबाई पर पड़ी.

‘‘क्या है, तू यहां खड़ीखड़ी क्या कर रही है?’’ घूरते हुए निशा ने शांताबाई से कहा, ‘‘तुझ से दूध मांगा था न मैं ने बच्ची के लिए. और, मेरे नहाने के लिए पानी गरम कर दिया तू ने?’’

‘‘दूध ही तो लाई हूं, बहूजी, और पानी भी गरम कर दिया है.’’ ‘‘ठीक है, अब जा यहां से,’’ शांताबाई से दूध की बोतल छीन कर निशा बोली, ‘‘अब खड़ेखड़े मुंह क्या देख रही है. जा, जा कर अपना काम कर,’’ निशा अकारण ही झंझला पड़ी उस पर.

‘‘बहूजी, फूल तोड़ दूं?’’ ‘‘और क्या, रोज नहीं तोड़ती क्या?’’ निशा अच्छी तरह जानती थी कि शांता क्यों किसी न किसी बहाने यहीं चक्कर काटते रहना चाहती है.

सुबह जब रमिता आई तो प्रकाश वहीं बाहर बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे. कोई नई बात नहीं थी, वैसे भी रमिता हर  3-4 दिन में मां की अदालत में तुषार के खिलाफ कोई न कोई मुकदमा ले कर हाजिर रहती और फैसला भी उसी के पक्ष में होता. कभी यह कि, तुषार आजकल लगातार औफिस से घर देर से आता है, तो कभी यह कि तुषार फिल्म दिखाने का वादा कर के समय पर नहीं आया, तो कभी यह कि तुषार मेरा जन्मदिन भूल गया.

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