‘‘अरे, सुन. क्या नाम है तेरा?’’
‘‘चमेली,’’ पास से गुजरती स्त्री ने पलट कर देखा.
‘‘तेरा नाम जसोदा है न?’’ चमेली ने भी उसे पहचान लिया था.
दोनों एकदूसरे को देख कर मुसकराईं. जसोदा मतलब की बात पर आ गई, ‘‘वह मैं इसी हफ्ते 2 महीने के लिए गांव जाऊंगी. मेरे पास 3 कोठियों का काम है. तीनों में बरतन, झाड़ूपोंछा और कपड़े धोने का काम करती हूं. पूरे 10 हजार का काम है. एक कोठी की डस्टिंग भी है. उस के 3 हजार अलग से हैं. बोल, काम पकड़ेगी?’’
‘‘यानी 13 हजार,’’ चमेली हिसाब लगा
रही थी.
‘‘सुन, 2 महीने बाद आ कर काम वापस ले लूंगी,’’ जसोदा बोली.
‘‘ठीक है, अपना नंबर दे दे. घर पहुंच कर बताती हूं. हां, कोठी वाली से कल बात करा देना.’’
दोनो ने नंबरों का आदानप्रदान किया. मोबाइल अपनेअपने ब्लाउज में घुसेड़े और उसी तरह मुसकराती हुई विपरीत दिशा में मुंड़ गईं.
चमेली सोचने लगी कि पिछली 2 कोठियां छोड़ कर नई कोठियां पकड़ने की बात तो वह पहले से ही सोच रही थी. जिन कोठियों में काम कर रही है वे सभी घर से दूर पड़ती हैं. काफी पैदल चलना पड़ता है.
चमेली का गणित फिर चालू हो गया. कोठियों के काम से मिली तनखा में से 3 हजार का राशनपानी, 1 हजार झुग्गी का किराया. अगले महीने गांव में देवर की शादी है. हजार तो भेजने ही पड़ेंगे. गांव वाले घर की छत भी पक्की करानी है. इस के लिए भी 3 हजार महीने का जमा करती हूं. यहां भी कौन से महल में रह रही है. यह तो ठेकेदार के हाथपैर जोड़े तो 15?15 की जगह दे दी. मीना और सीमा 2 बेटियां हैं. लड़कियां बड़ी हो रही हैं. कोने की झुग्गी है डर लगा रहता है... फिर भी कुछ तो है.