ऐसा बिलकुल नहीं था कि उसे लड़कों से हमेशा से नफरत थी. बचपन से ले कर इंटरमीडिएट तक वह लड़कों के साथ पढ़ी. उस के बाद विश्वविद्यालय तक लड़के ही तो उस के साथी थे. कुछ लड़के बहुत केयरिंग थे सच्चे दोस्तों जैसे पर कुछ लड़के लड़कियों से दोस्ती सिर्फ उन के शरीर तक ही रखते थे.
उस तरह के लड़के, पुरुष हर जगह टकराए, स्कूल, बाजार, रिश्तेदारी, सभी जगह चुभती निगाहें और कुहनियां.
किशोरावस्था में अपनी उम्र से दोगुने अंकल के द्वारा अपने साथ हुए यौन शोषण की भयानक यादों को कितनी मुश्किल से भुला पाई थी बीहू और अगर उस समय मां और पापा की सपोर्ट नहीं मिलती तो वह कब की आत्महत्या कर चुकी होती.
परिवार वालों का साथ पाने से बीहू मजबूत बनी रही और उस ने विश्वास रखा कि अगर उस के साथ गलत हुआ है तो उस की गलती नहीं बल्कि उस व्यक्ति की है जिस ने उस के साथ गलत किया है. सजा तो उस आदमी को मिलनी चाहिए.
बड़ी होती बीहू जानेअनजाने में लड़कों से अपनेआप को दूर ही रखने लगी. लड़कों की मौजूदगी उस के लिए दमघोटू बनने लगी. शादियों, पार्टियों में जाने से भी गुरेज करती थी बीहू और अगर जाए भी तो पापा के साए में ही खानापीना कर के वापस घर आ जाना. यही उस का पार्टी ऐंजौय करने का तरीका था.
पापा भी बीहू के चारों तरफ एक सुरक्षित सा घेरा बनाए रहते थे. धीरेधीरे युवा होती बीहू के मन में लड़कों के प्रति एक रीतापन सा छा गया जबकि लड़कियों की संगत उसे सुहाती थी.