सब कहते हैं और हम ने भी सुना है कि जिंदगी एक अबूझ पहेली है. वैसे तो जिंदगी के कई रंग हैं, मगर सब से गहरा रंग है प्यार का... और यह रंग गहरा होने के बाद भी अलगअलग तरह से चढ़ता है और कईकई बार चढ़ता है. अब प्यार है ही ऐसी बला कि कोई बच नहीं पाता. 'प्यार किया नहीं जाता हो जाता है...' और हर बार कोई छली जाती है... यह भी सुनते आए थे.

आज भी 'छलिया कौन' यह एक बड़ा प्रश्नचिन्ह बन कर मुंहबाए खड़ा है. प्यार को छल मानने को दिल तैयार नहीं और प्यार में सबकुछ जायज है, तो प्यार करने वाले को भी कैसे छलिया कह दें? प्यार करने वाले सिर्फ प्रेमीप्रेमिका नहीं होते, प्यार तो जिंदगी का दूसरा नाम है और जिंदगी में बहुतेरे रिश्ते होते हैं. मसलन, मातापिता, भाईबहन, मित्र और इन से जुड़े अनेक रिश्ते...

ममत्व, स्नेह, लाड़दुलार और फटकार ये सभी प्यार के ही तो स्वरूप हैं. इन सब के साथ जहां स्वार्थ हो वहां चुपके से छल भी आ जाता है.

वैसे, जयवंत और वनीला की कहानी भी कुछ इसी तरह की है. कथानायक तो जयवंत ही है, मगर नायिका अकेली वनीला नहीं है. वनीला तो जयवंत और उस की पत्नी सुमेधा की जिंदगी में आई वह दूसरी औरत है जिस की वजह से सुमेधा अपनी बेटी मीनू के साथ अकेली रहने के लिए विवश है. सुमेधा सरकारी स्कूल में शिक्षिका है और जयवंत सरकारी कालेज में स्पोर्ट्स टीचर है. दोनों की शादी परिवारजनों ने तय की थी.

सुमेधा सुंदर और सुशील है और जयवंत के परिजनों को दिल से अपना मान कर सब के साथ सामंजस्य बैठा कर कुशलतापूर्वक घर चला रही है. शादी के 10 सालों बाद सरकारी काम से जयवंत को दूसरे शहर में ठौर तलाशना पड़ा. काफी प्रयासों के बाद भी सुमेधा का ट्रांसफर नहीं हुआ. जयवंत हर शनिवार शाम को आता और पत्नी व बेटी के साथ 2 दिन बिता कर सोमवार को लौट जाता. मीनू भी प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ रही थी तो सुमेधा ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया. सुमेधा सप्ताहभर घर की जिम्मेदारी अकेली उठाती रहती और सप्ताहांत में घर आए पति के लिए भी समय निकालती.

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