‘‘यह क्या है शैलेश? तुम्हें मना किया था न कि अगली बार लेट होने पर क्लास में एंट्री नहीं मिलेगी,’’ प्रोफैसर महेंद्र सिंह गुस्से से चीख उठे.
‘‘सौरी सर, आज आखिरी दिन था मजार में हाजिरी लगाने का, आज 40 दिन पूरे हो गए हैं, कल से मैं समय से पहले ही हाजिरी दर्ज करा लूंगा.’’
‘‘यह क्या मजार का चक्कर लगाते रहते हो? इतना पढ़नेलिखने के बाद भी अंधविश्वासी बने हो,’’ प्रोफैसर ने व्यंग्य किया.
‘‘सर, ऐसा न कहिए,’’ एक छात्र बोल उठा. ‘‘सर, आप को रेलवे स्टेशन पर बनी मजार की ताकत का अंदाजा नहीं है,’’ दूसरे छात्र ने हां में हां मिलाई. ‘‘सर, आप ने देखा नहीं, मजार 2 प्लेटफौर्म्स के बीच में बनी है, तीसरे, चौथे, 5वें प्लेटफौर्म्स जगह छोड़ कर बनाए गए हैं,’’ एक कोने से आवाज आई.
‘‘सर, अंगरेजों के जमाने से ही इस मजार का बहुत नाम है, 40 दिनों की नियम से हाजिरी लगाने पर हर मनोकामना पूरी हो जाती है,’’ किसी छात्र ने ज्ञान बघारा.
आज भौतिकी की क्लास में मजार का पूरा इतिहासभूगोल ही चर्चा का विषय बना रहा. प्रोफैसर भी इस वार्त्तालाप को सुनते रहे.
महेंद्र सिंह का पूरा छात्रजीवन व नौकरी के शुरू के वर्ष भोपाल में बीते हैं. पिछले वर्ष उन्हें इस छोटे से जिले से प्रोफैसर का औफर आया तो वे अपनी पत्नी को ले कर इस कसबेनुमा जिले परसिया में चले आए, जहां सुविधा व स्वास्थ्य के मूलभूत साधन भी उपलब्ध नहीं हैं. इस कसबे को जिले में बदलने के 5 वर्ष ही हुए हैं, इसलिए विकास के नाम पर तहसील, जिला अस्पताल व सड़कों का विस्तार कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है.