‘‘कहां थीं तुम? 2 घंटे से फोन कर रहा हूं... मायके पहुंच कर बौरा जाती हो,’’ बड़ी देर के बाद जब मोनी ने फोन रिसीव किया तो मीत बरस पड़ा.
‘‘अरे, वह... मोबाइल... इधरउधर रहता है तो रिंग सुनाईर् ही नहीं पड़ी... सुबह ही तो बात हुई थी तुम से... अच्छा क्या हुआ किसलिए फोन किया? कोई खास बात?’’ मोनी ने उस की झल्लाहट पर कोई विशेष ध्यान न देते हुए कहा.
‘‘मतलब अब तुम से बात करने के लिए कोई खास बात होनी चाहिए मेरे पास... क्यों ऐसे मैं बात नहीं कर सकता? तुम्हारा और बच्चों का हाल जानने का हक नहीं है क्या मुझे? हां, अब नानामामा का ज्यादा हक हो गया होगा,’’ मीत मोनी के सपाट उत्तर से और चिढ़ गया. उसे उम्मीद थी कि वह अपनी गलती मानते हुए विनम्रता से बात करेगी.
उधर मोनी का भी सब्र तुरंत टूट गया. बोली, ‘‘तुम ने लड़ने के लिए फोन किया है तो मुझे फालतू की कोई बात नहीं करनी है. एक तो वैसे ही यहां कितनी भीड़ है और ऊपर से मान्या की तबीयत...’’ कहतेकहते उस ने अपनी जीभ काट ली.
‘‘क्या हुआ मान्या को? तुम से बच्चे नहीं संभलते तो ले क्यों जाती हो... अपने भाईबहनों के साथ मगन हो गई होगी... ऐसा है कल का ही तत्काल का टिकट बुक करा रहा हूं तुम्हारा... वापस आ जाओ तुम... मायके जा कर बहुत पर निकल आते हैं तुम्हारे. मेरी बेटी की तबीयत खराब है और तुम वहां सैरसपाटा कर रही हो... नालायकी की हद है... लापरवाह हो तुम...’’ हालचाल लेने को किया गया फोन अब गृहयुद्ध में बदल रहा था. मीत अपना आपा खो बैठा था.