अपनी पीएचडी की समाप्ति पर प्रफुल्लचित, उत्साहित मैं जयपुर चल पड़ी. मन मुझे दोषी ठहराने लगा. मैं ने इन 6 महीनों में उन लोगों की कोई खोजखबर नहीं ली थी. उन लोगों ने भी मुझे कोई पत्र नहीं लिखा था. मैं सोचने लगी कि मेरी बेटी नीलिमा को भी क्या मेरी याद कभी नहीं आई होगी. पर मैं ने ही कौन सा उसे याद किया. पीएचडी की तैयारी इतनी अजीब होती है कि व्यक्ति सबकुछ भूल जाता है. परंतु इस में गलती ही क्या है? आनंद भी जब कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग के लिए 6 महीने के लिए विदेश गया था तो उस ने भी तो कोई खोजखबर नहीं ली थी.
मैं भी तो व्यस्त थी. आनंद मेरी मजबूरी जरूर समझ गया होगा. मैं जब घर जाऊंगी तो वे लोग बहुत खुश होंगे. सहर्ष मेरा स्वागत करेंगे. मन में आशा की किरण जागी, लेकिन तुरंत ही निराशा के बादलों ने उसे ढक दिया, ‘क्या सचमुच वे मेरा स्वागत करेंगे? मुझे अगर घर में प्रवेश ही नहीं करने दिया तो?’ संशय के साथ ही मैं ने जयपुर पहुंच कर ननद के घर में प्रवेश किया.
ननद विधवा हो गई थी. अपना कोई नहीं था. नीलिमा से उसे बहुत प्यार था. बहुत रईस भी थी, इसलिए बड़ी शान से रहती थी. घर में नौकरचाकरों की कमी नहीं थी. मैं ने डरतेडरते भीतर प्रवेश किया. आनंद बाहर बरामदे में खड़ा था. उस ने मुझे देखते ही व्यंग्यभरी मुसकराहट के साथ कहा, ‘मेमसाहब को फुरसत मिल गई.’
मैं ने जबरदस्ती अपने क्रोध को रोका और मुसकराते हुए अंदर प्रवेश किया. अंदर से ननद की कठोर व कर्कश आवाज ने मुझे टोका, ‘जिस परिवार से तुम ने 6 महीने पहले रिश्ता तोड़ दिया था, अब वहां क्या लेने आई हो?’
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