नगर के दैनिक अखबार ‘बदलती दुनिया’ का मैं रविवासरीय संस्करण तैयार करता हूं. नववर्ष विशेषांक के लिए मैं ने अखबार में अनेक बार विज्ञापन दे कर अच्छी कहानियों और लेखों को आमंत्रित किया था. खासतौर से नई पीढ़ी से अपेक्षा की थी कि वे इस बदलते समय और बदलती दुनिया में नई सदी में क्या आशाआकांक्षाएं रखते हैं, उन की चाहतें क्या हैं, उन के सपने क्या हैं आदि पर अपनी बात खुल कर कहें. चाहें तो उन का नाम गुप्त भी रखा जा सकता है.
‘‘जी, मेरा नाम स्वर्णा है...’’ 16-17 साल की एक युवा होती, सुंदर सांचे में ढली, तीखे नाकनक्श वाली लड़की मेरी मेज के सामने आ खड़ी हुई.
‘‘कहिए?’’ मेज पर फैली ढेरों रचनाओं पर से नजरें हटा कर मैं उस की ओर देखने लगा.
‘‘अपनी कहानी ‘बदलती दुनिया’ को नववर्ष विशेषांक में छपने के लिए देने आई हूं,’’ कहते हुए उस ने अपने कंधे पर लटके बैग से एक लिफाफा निकाला और मेरी ओर बढ़ा दिया.
‘‘बैठें, प्लीज,’’ मैं ने सामने रखी कुरसी की तरफ इशारा किया. वह लड़की बैठ गई पर उस के चेहरे पर असमंजस बना रहा. वह बैठी तो भी मेरी ओर देखती रही. लिफाफे से निकाल कर कहानी पर एक सरसरी नजर डाली. गनीमत थी कि कहानी पृष्ठ के एक ओर ही लिखी गई थी वरना उसे वापस दे कर एक तरफ लिखने को कहना पड़ता.
संपादक होने के नाते कहानी को ले कर मेरी कुछ अपनी मान्यताएं हैं. पता नहीं इस लड़की ने उन बातों का खयाल कहानी में रखा है या नहीं. मेरी समझ से कहानी आदमी के भीतर रहने वाले आदमी को सामने लाने वाली होनी चाहिए. यदि कोई कहानी ऐसा नहीं करती तो मात्र घटनात्मक कहानी पाठकों का मनोरंजन तो कर सकती है पर मनुष्य को समझने में उस की मदद नहीं कर सकती.
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