लेखक -विर्मला महाजन

मिनी अकसर अपनी दादी को देखकर हैरान रहती. उसे लगता कि इस उम्र में दादी को कोई काम नहीं करने देता और इसलिए दादी खाली बैठी रहती है. एक दिन मौका देख कर मिनी दादी से अजीबोगरीब सवाल करने लगी और जो हुआ उस की कल्पना खुद दादी को भी नहीं थी…

कोरोना   के दिन थे जब एक दिन मिनी मेरे पास बैठ कर होमवर्क  कर रही थी. अचानक वह कहने लगी, ‘‘दादी, आप को कितनी मौज है न?’’

‘‘क्यों, किस बात की मौज है?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘आप को तो कोई काम नहीं करना पड़ता न?’’ उस का उत्तर था.

‘‘क्यों? मैं तुम्हारे लिए मैगी बनाती हूं, सूप बनाती हूं, हरी चटनी बनाती हूं, तुम्हारा फोन चार्ज करती हूं. कितने काम तो करती हूं? तुम्हें कौन सा काम करना पड़ता है?’’ मैं ने हंस कर पूछा

‘‘क्या बताऊं दादी मु?ो तो बस काम ही काम हैं?’’ उस ने बड़े ही दुखी स्वर में उत्तर दिया.

‘‘क्या काम है, पता तो चले?’’ मैं ने

दोबारा पूछा.

‘‘क्लास अटैंड करो, होमवर्क करो, कभी टैस्ट की तैयारी करो, कभी कोई प्रोजैक्ट तैयार करो. दादी आप को पता है, बच्चों को कितने काम होते हैं?’’ वह धाराप्रवाह बोलती जा रही थी मानो किसी ने उस की दुखती रगरग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘उस पर ये औनलाइन क्लासें. बस लैपटौप के सामने बैठे रहो, बुत बन कर. जरा सा  इधरउधर देखो तो मैम चिल्लाने लगती है. चिल्लाती भी इतनी जोर से है कि घर पर भी सब को पता चल जाता है. सोनम तुम ने होमवर्क क्यों नहीं किया? राहुल तुम्हारी राइटिंग कितनी गंदी है. महक तुम्हारा ध्यान किधर है. बस डांटती ही जाती है.’’

आज मिनी पूरी तरह विद्रोह पर उतर आई थी. मैं चुपचाप उस की बातें सुन रही थी.

‘‘क्या स्कूल में मैम नहीं डांटती?’’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘‘दादी कैसी बात कर रही हो? वहां भी डांट पड़ती है. मैडमों का तो काम ही डांटना है.’’

‘‘फिर?’’ मेरा प्रश्न था.

‘‘दादी आप सम?ा नहीं रही हो?’’ उस ने बड़े भोलेपन से उत्तर दिया.

‘‘क्या नहीं सम?ा रही हूं? तू कुछ बताएगी तो पता चलेगा.’’

‘‘रुको, मैं आप को सम?ाती हूं. स्कूल में भी मैम डांटती हैं, पर हम लोगों को बुरा नहीं लगता है.’’

‘‘क्योंकि डांट तो सब को पड़ती है इसलिए क्लास में सब बराबर होते हैं. कभीकभी तो पनिशमैंट भी मिलता है. पर किसी को पता तो नहीं चलता? यहां तो अपने ही फ्रैंड्स के पेरैंट्स तक को पता चल जाता है. सब के सामने इनसल्ट हो जाती है न?’’ वह गंभीरतापूर्वक बोली.

‘‘हां बात तो तेरी ठीक है. हमें स्कूल में मैम से डांट पड़ी है, घर पर तो किसी को पता नहीं चलना चाहिए,’’ मैं ने मन ही मन मुसकराते हुए उस की बात का समर्थन किया. समर्थन पा कर वह बहुत खुश हुई. शायद बचपन से ही हमारे मन में यह भावना घर कर जाती है कि हमारी गलतियों का किसी को पता नहीं चलना चाहिए.

अब वह पूरी तरह अपनी रौ में आ चुकी थी. मु?ो अपना राजदान बनाते हुए बोली

जैसे कोई बहुत ही रहस्य की बात बता रही हो.

‘‘दादी मैं आप को एक बहुत ही मजेदार बात बताऊं? आप किसी को बताएंगी तो नहीं?’’  उस ने पूछा. वह आश्वस्त होना चाहती थी.

‘‘नहीं. मैं किसी को नहीं बताऊंगी. तू बेफिक्र हो कर बता.’’

मेरा उत्तर सुन कर वह बोली, ‘‘जब किसी बच्चे पर मैम नाराज होती है तो सारे बच्चे नीचे मुंह कर के या मुंह पर हाथ रख कर हंसने लगते हैं.’’

‘‘मैम नाराज नहीं होती?’’

‘‘मैम को पता ही नहीं चलता है.’’

‘‘और वह बच्चा?’’

‘‘बच्चों को क्या फर्क पड़ता है. रोज किसी न किसी पर मैम गुस्सा होते ही हैं.’’

सुन कर मु?ो हंसी आ गई. सच ही है हमाम में सब नंगे.

‘‘एक और मजेदार बात बताऊं दादी?’’ अब वह बहुत खुश लग रही थी.

‘‘हां… हां जरूर.’’

‘‘जब मैम ब्लैकबोर्ड पर लिखती हैं न? क्लास की तरफ मैम की पीठ होती है तब हम लोग बहुत मस्ती करते हैं. कुछ लड़के तो अपनी सीट छोड़ कर उधम मचाने लगते हैं और जैसे ही मैम मुड़ती हैं सब अपनीअपनी सीट पर चुपचाप बैठ जाते हैं. मैम को कुछ पता ही नहीं चलता है. हम लोग स्कूल में बहुत मजे करते हैं. घर पर तो मैं बोर हो जाती हूं,’’ उस ने निराश हो कर कहा, ‘‘बस सारा दिन घर में बैठे रहो. इस कोरोना ने तो पागल कर दिया है. उस पर सुबहसुबह जब अच्छी नींद आती है तो ममा जबरदस्ती उठा देती है. दोपहर को जब मु?ो नींद नहीं आती तो कहती है अब थोड़ी देर सो जाओ,’’ उस ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘पहले भी तो ऐसे ही होता था,’’ मैं ने कहा.

‘‘दादी आप सम?ा नहीं रही हो. पहले मैं स्कूल जाती थी, इसलिए थक जाती थी. अब दिन में सो जाती हूं तो रात को नींद नहीं आती है. पर सुबहसुबह तो उठना पड़ता है न? और  ये पापा बारबार कहते रहते हैं कि बुक रीडिंग कर लो सम्स कर लो, मु?ो परेशान कर के रख दिया है सब ने. उस ने दुखी हो कर कहा. फिर कुछ देर सोचने के बाद मु?ो पूछने लगी, ‘‘दादी, मैं कब बड़ी होऊंगी?’’

मिनी का प्रश्न सुन कर मैं हैरत से उस की ओर देखने लगी. मन सोच में डूब गया.

अकसर बचपन में हम जल्दीजल्दी बड़े होना चाहते हैं, पर बड़े होने पर दुनियादारी में फंस कर हमारी बचपन की निश्चिंतता, निश्छलता, भोलापन पता नहीं कहां गायब हो जाता है. आयु बढ़ने के साथ ही जिम्मेदारियों के बो?ा तले दबते ही चले जाते हैं. धीरेधीरे जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए हम स्वयं शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक रूप से कमजोर हो जाते हैं. दूसरों का बो?ा उठातेउठाते हम स्वयं सब पर बो?ा बन जाते हैं. फिर याद आती हैं उस उम्र की बातें जो लौट कर कभी नहीं आती है.

पर मिनी को क्या पता है कि उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है. वह तो बस जल्दी से जल्दी इस उम्र में पहुंचना चाहती है.                              द्य

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