दादी की इकलौती बची बहू ने तो शायद अपनी सास को न छूने का प्रण कर रखा था. घर से चलती तो कम से कम भारी साड़ी पहन कर. साथ में मेलखाता हुआ ब्लाउज. इस के ऊपर रूज, लिपस्टिक का मेकअप. अस्पताल में जा कर पुन: एक बार अपना मेकअप शीशे में देखना न भूलती ताकि राह में कोई गड़गड़ हुई हो तो ठीक की जा सके. उस उम्र में भी चाची का ठसका देखने वाला था. वह तो मु?ा तक से फ्लर्ट कर लिया करती थी.
मैं ने उस से एक दिन कह ही दिया, ‘‘चाची, आप का यह शृंगार यहां शोभा नहीं देता.’’
वह तपाक से बोली, ‘‘तुम क्या जानो. बहुत सारे डाक्टर यहां आते हैं. कुछेक उन के व दामादों के मित्र भी हैं. वे मित्र भी दादी को देखने आते ही हैं. मु?ो सादे कपड़ों में देखेंगे तो क्या कहेंगे. कितनी बेइज्जती होगी तुम्हारे चाचा की एक बड़े व्यापारी की पत्नी के नाते मु?ो यह सब पहनना पड़ता है. घर की इज्जत का सवाल जो है.’’
दादा के एकमात्र सुपुत्र और हमारे यहां मौजूद एक ही अदद चाचा साहब को तो बिजनैस से ही फुरसत नहीं मिलती थी. हां, रोज रात एक बार जरूर इधर से हो जाते थे. रात में ठहरने के नाम पर दुकान के नौकर को बैठा जाते थे, जो आधा सोता तो आधा ऊंघता था. रात में ग्लूकोस आदि चढ़ाते समय दादी के हाथ को पकड़े रहना पड़ता था क्योंकि अकसर वे हाथ को ?ाटक देती थीं. इसलिए रात में दीप्ति और मैं बारीबारी सोते व जागते थे.
घर में करीब 7वें रोज महामृत्युंजय का पाठ प्रारंभ हो गया था, दादी को मोक्ष दिलाने के लिए. साथ ही एक पंडित की नियुक्ति अस्पताल में अम्मांजी को भागवत पढ़ कर सुनाते के लिए कर दी गई थी. वह 1 घंटे के पूरे 200 रुपए लेता था. दादी के स्वस्थ रहते कोई उन्हें एक छोटा किस्सा भी नहीं सुनाता था, पर अब भागवत सुनाई जा रही थी. जब तक दादी ठीक थीं, किसी को उन की चिंता तक न थी, कोई खाने को नहीं पूछता था, लावारिस सी घर के कोने में पड़ी रहती थीं.
जब सुनता था तो इच्छा होती थी दादी को अपने पास ले आऊं पर दादी नहीं आतीं. कह देती थीं, ‘‘बेटा, कुछ ही दिन रह गए है. यहीं गुजार लेने दो.’’
करीब 8वें दिन सुबह दादी का अस्पताल में देहांत हो गया. चाचाचाची, मेरी चचेरी सालियां व उन के पति आ गए थे. उस दिन बच्चे घर ही पर रहने दिए गए.
आते ही सब दादी के शरीर से लिपट गए. (ऐसे वे मेरे सामने पहले कभी नहीं लिपटे थे). थोड़ी ही देर में पूरा कमरा दहाड़ें मार कर रोने की आवाजों से गूंज उठा. यों लगा जैसे एकसाथ कई लोग कत्ल कर दिए गए हों. 5 मिनट में ही सब शांत भी हो गए. किसी के चेहरे को देख कर नहीं लग रहा था कि उस की आंखों से आंसू का एक कतरा भी बहा हो. पूरा सीन मेरी आंखों के सामने नाटक के रिहर्सल की तरह निकल गया. मेरे अपने मातापिता जिंदा थे और दोनों ही मेरी तरह अकेले संतान थे. किसी को मरने के समय देखने का यह पहला मौका था.
दादी के शव को स्ट्रेचर पर डालने के वक्त चूंकि चाचा अकेले थे, मैं ने सोचा दादीको उठाने में मदद कर दूं. अभी हाथ बढ़ाया ही था कि बड़ी साली बोल उठी, ‘‘दिनेश, तुम हाथ न लगाना. तुम तो दामाद हो, तुम्हारा हाथ लग गया तो अम्मां को नर्क जाना होगा,’’ इस बहाने पति को भी हाथ लगाने से बचा लिया.
दादी के मरने तक तो मैं सेवा करता रहा. उस समय किसी को याद नहीं आया कि मैं घर का दामाद हूं. पर यह चूंकि दादी को मोक्ष मिलने की बात थी, अतएव मैं अपना हाथ लगा कर उन के मोक्ष के रास्ते का द्वार बंद नहीं करना चाहता था.
दादी को उठाना चाचाके अकेले के बस की बात नहीं थी. वे खुद 65 के थे. दादी 89 की थीं. फिर भी भाई साहब, मेरी श्रीमतीजी व भाभीजी दादी को उठा कर स्ट्रेचर पर लाने लगे. स्ट्रेचर मेरी दोनों सालियों ने पकड़ रखी थी. इस से पहले कि शव स्टे्रचर पर आ पाता, वह फर्श पर जा गिरा.
जमीन पर से किसी तरह फिर अर्दली की हैल्प से शव उठा कर स्ट्रेचर पर डाल लिया गया.
लाश घर पर ले जाई गई. आननफानन में रैफ्रीजरेटड ग्लास कौफिन गया था. करीब
20 किलोग्राम गुलाब के फूल, इतने ही मखाने मंगवा लिए गए थे. एक प्रतिष्ठित व्यवसायी की मां की शवयात्रा थी. उन की सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी. कहीं कोई यह न कह दे, लड़के ने मां के लिए कुछ खर्च नहीं किया.
मेरा पत्ता चूंकि पहले ही कट गया था, इसलिए मैं ऐसी जगह बैठ गया था, जहां से समस्त क्रियाकलाप देखे जा सकें. मु?ो तो वैसे भी सब दामाद सम?ाते थे.
औरतें जत्थों में चली आ रही थीं. जैसे ही वे लाश के करीब आतीं, सब की सब एक सुर में दहाड़ मार कर रो पड़ती थीं. क्या गजब का सामंजस्य था. कुछ ही क्षणों में फिर शांति छा जाती थी. पहले आई औरतें पीछे हट कर एक ओर खिसक जाती थीं, जहां वे आपस में मृतक अर्थात दादी के बारे में हर तरह की चर्चा प्रारंभ कर देती थीं. भले ही दादी के जीतेजी कभी कानी आंख भी वे सब इधर नहीं ?ांकी होंगी, पर अब कालोनी की तमाम स्त्रियों का हुजूम था.
थोड़ी देर बाद आवाजें आईं, ‘‘नाती कहां है. बुलवाओ, पैर तो छू लें. दादी को मोक्ष मिल जाएगा.’’
मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ था. मेरे छूने मात्र से दादी को नर्क मिल सकता था, पर मेरे लड़के के छूने से नहीं. जब वे बीमार थीं तो कोई उन्हें हाथ नहीं लगा रहा था.
मेरी दोनों सालियां व बहू अपनेअपने लड़कों को शव की तरफ हांकने लगीं. अंतत: सभी दादी के मृत शरीर का चरणस्पर्श कर चुके थे.
मैं ने सोचा, अच्छा हुआ मेरे दोनों साढू भाईर् नहीं आए वरना मेरी तरह तमाशा बनते व मूर्ति की तरह कोनों में बैठे होते.
एक फोटोग्राफर भी था. लाश पर कफन डाला जाने वाला ही था कि भाई साहब की निगाह शायद अम्मां के गले व हाथ की कलाई पर चली गई. सोने का हार व कंगन थे. कम से कम 4 तोला सोना. भाई साहब ने लपक कर निकाल लिया, गोया कोई ले कर भागने वाला था.
शव ऐंबुलैंस पर रखकर सभी लोग घाट की तरफ रवाना हो गए. घाट पर लकड़ी की चिता भी तैयार हो गईर् थी. लाश को चिता पर रखने से पहले नदी का गोता भी लगवाना था. पर अभी भाई साहब की खोपड़ी नहीं घुटी थी. तुरंत ही एक नाई भाई साहब के बाल मूंडने लगा. मुंडन संस्कार के बाद भाई साहब के तन पर श्वेत ?ाना वस्त्र था. सर्द हवा के कारण भाई साहब की कंपकंपी छूट चली थी.