जब प्रथम प्रसव में कन्या हुई तो विपुला पति की आंखों में उतरे क्रोध व शोक को देख कांप उठी थी. वकील साहब उपस्थित प्रियजनों के सम्मुख तो कुछ न बोले, किंतु एकांत पाते ही दांत पीस विपुला को यह जताना न भूले, ‘लड़की ही पैदा करनी थी...?’
विपुला के नेत्रों में आंसू डबडबा आए. वह चुपचाप मुंह दूसरी तरफ कर सिसकने लगी.
दूसरी बार प्रसव कक्ष में सरबती भी विपुला के साथ थी. नवजात शिशुओं के रुदन के बीच ही सरबती का चेहरा लटक गया था. उस का मुख देख ही विपुला का चेहरा स्याह पड़ गया था. परिणाम तो सरबती के चेहरे पर परिलक्षित था किंतु फिर भी उस ने प्रश्नभरी निगाह सरबती पर डाली थी.
सरबती अटकअटक कर बोली थी, ‘मालकिन, अब के तो दोनों जुड़वां बेटियां हैं.’
विपुला पर तो मानो वज्र गिर पड़ा. वह उस की ओर जीवनदान मांगती सी इतना भर कह पाई, ‘सरबती, कुछ सोच, वे बरदाश्त न कर पाएंगे,’ और वह बेहोश हो गई.
सरबती विपुला के दर्द और घाव को समझती थी, पर अनपढ़, गरीब किस बल पर उस का साहस बंधाती. उस को जो सूझा, उस ने किया.
विपुला को घंटेभर बाद होश आया तो वकील साहब को तनिक संतुष्ट व प्रसन्न देख फटी आंखों से चारों तरफ निहारने लगी. कहीं स्वप्न तो नहीं देख रही या इतने वर्षों तक वह अपने पति को ही भलीभांति न जान सकी? इतने में वकील साहब तन कर बोले, ‘देखना, बेटे को बैरिस्टर बनाऊंगा, बैरिस्टर.’
वह चौंकी, मानो स्वप्न की दुनिया से वास्तविकता में आ गई हो. वकील साहब ने बेटे को उस की बगल में लिटा दिया था. विपुला के कांपते हाथ अनायास ही बच्चे के शिश्न पर चले गए. वह मूक ठगी सी कृतज्ञ सरबती की ओर ताकने लगी.