परसों ही मेरी बड़ी बहन 10 दिन रहने को कह कर आई थीं और अभी कुछ ही देर पहले चली गई हैं. मुझ से नाराज हो कर अपना सामान बांधा और चल दीं. गुस्से में अपना सामान भी ठीक तरह से नहीं संभाल पाईं. इधरउधर पड़ी रह गई चीजें इस बात का प्रमाण हैं कि वे इस घर से जल्दी से जल्दी जाना चाहती थीं. कितनी दुखी हूं मैं उन के इस तरह अचानक चले जाने से. उन्हें समझा कर हार गई लेकिन दीदी ने कभी किसी को सोचनेसमझाने का प्रयत्न ही कहां किया है? उन का स्वभाव मैं अच्छी तरह जानती हूं. बचपन से ही झगड़ालू किस्म की रही हैं. क्या घर में, क्या स्कूलकालेज में, क्या पासपड़ोस में, मजाल है उन्हें जरा भी कोई कुछ कह जाए. हर बात का जवाब दे देना उन की आदत है.

अचानक परसों रात 10 बजे के करीब दीदी ट्रेन से आई थीं, उसी शाम सुबोध मुझे पर खूब बिगड़ चुके थे. हर घटना को तूल दे देना व उस के लिए मुझे ही दोषी ठहराना इन की आदत है. घर में कुछ जरा सा भी अवांछित घट जाए, ये मुझे ही उस के लिए दोषी ठहराते हैं. रिषी को जरा सी ठंड लग जाए या उस से कुछ टूट जाए, इन के मुंह से यही निकलेगा, ‘‘सब तुम्हारी लापरवाही के कारण हुआ है. ठीक है नौकरी कर रही हो पर फिर भी एक बच्चे की देखभाल तो करनी ही है. मुझे फोन कर देती कि आया से नहीं संभल रहा तो मैं छुट्टी ले कर आ जाता.’’

उस दिन रिषी ने बैठक मैं रखा एक डैकोरेशन पीस जो महंगा था मेरी पूर्ण सतर्कता के बावजूद तोड़ दिया. वह प्रतिमा ये पिछले वर्ष मुंबई से लाए थे. दीवाली से 2-4 दिन पहले ही वह मूर्ति इन्होंने बैठक में रखे स्टूल पर रख दी थी. उस समय मैं ने इन से अनुरोध भी किया था कि मूर्ति को इतने नीचे स्थान पर न रखें. कहीं ऊपर रखें ताकि रिषी उस तक न पहुंच सके. परंतु अपनी आदत के अनुसार इन्होंने तब मेरी बात नहीं सुनी उलटे कहा, ‘‘तुम यदि ध्यान रखोगी तो रिषी बैठक में नहीं पहुंच पाएगा.’’

रिषी ने जब से नई प्रतिमा को बैठक में रखा देखा था, उसे बेचैनी हो रही थी कि किस प्रकार उसे छू कर देखे. उस दिन वह मेरी आंख बचा कर किसी तरह बैठक में घुस ही गया और मूर्ति को स्टूल से गिरा दिया. मेरा कलेजा धक से हो गया. मैं जानती थी कि सुबोध पूरा दोष मुझ पर ही मढ़ेंगे.

सचमुच शाम दफ्तर से लौट कर वे मुझे पर खूब चिल्लाए. घर में खाना तक नहीं बना. रिषी को बगल में ले कर मैं भी भूखी ही चारपाई पर जा लेटी थी. इन की अकारण झल्लाहट के कारण मन इतना दुखित हुआ कि मेरी आंखों से आंसू बहने लगे और फिर न जाने रोतेरोते मैं कब सो गई.

अपर्णा दीदी ने दरवाजा खटखटाया तो आंख खुली. ऐसे तनाव भरे मौके पर दीदी के आकस्मिक आगमन से मन में संतोष हुआ. इन के आने से घर का तनाव समाप्त होगा, यही सोच कर मैं दीदी का सामान अंदर लाने के पश्चात सहर्ष रसोई में चाय बनाने चली गई.

उन के आने से यद्यपि मेरे चेहरे पर अनजाने ही प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी, परंतु मेरी सूजी हुई आंखों को देख कर उन्होंने सही अनुमान लगा लिया कि मैं रोती रही हूं. वे मेरे पीछे ही रसोई में आ गईं और पूछने लगीं, ‘‘दीपा, तुझे देख कर तो लग रहा है जैसेकि तू बहुत रोई है, क्या हुआ है तुझे?’’

मेरी आंखों से 2 बूंद आंसू अनजाने ही टपक पड़े, जिन्हें मैं ने दीदी की नजरों से छिपा कर झट से अपनी साड़ी के आंचल से पोंछ डाला. वास्तव में मैं तो चाहती थी कि दीदी को हमारे घर की स्थिति का ज्ञान ही न हो परंतु उन्हें सामने पा कर व उन के कुछ पूछने पर न जाने क्यों मेरी रुलाई फूट पड़ी.

तब तक सुबोध भी उठ कर रसोई के द्वार तक पहुंच गए थे. इन के चेहरे पर भी तनाव की रेखाएं स्पष्ट थीं. इन्होंने दीदी को प्रणाम किया और उन्हें ले कर बैठक में चल गए, जहां टूटी हुई मूर्ति के टुकड़े बिखरे पड़े थे.

मैं चाय ले कर बैठक में पहुंची तो ये मेरी शिकायतों की पूरी फाइल दीदी के सामने खोले बैठे थे, ‘‘देखिए, आप की दीपा की लापरवाही का प्रमाण. मेरी लाई गई मूर्ति के ये टुकड़े स्पष्ट बता रहे हैं कि यह एक बच्चे की निगरानी भी ढंग से नहीं कर सकती. पूरा दिन घर में रहती, तब भी आए दिन कुछ न कुछ नुकसान होता है.’’

दीदी आश्चर्य से मेरी ओरी देखने लगीं. उन का अनुमान था कि अपनी उस शिकायत से मैं बहुत अधिक उत्तेजित हो जाऊंगी, पर मैं शांत बनी ज्यों की त्यों खड़ी रही तो उन्होंने मुझे आंखों ही आंखों में बुरी तरह घूरा, जैसेकि चुप रह कर मैं ने बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो. मैं ने अपनी नजरें झुका लीं और उठ कर चुपचाप रसोई में खाना बनाने चल दी.

सुबोध की इस चिड़चिड़ाहट व झल्लाहट का कारण मैं समझती न होऊं, बात ऐसी नहीं है. मैं जानती हूं कि इन के परिवार का हर व्यक्ति पश्चिमी विचारों से प्रभावित है, ‘हर व्यक्ति को अपनी आजीविका स्वयं कमानी चाहिए,’ इन के परिवार के हर सदस्य की यही मान्यता है. मेरी सास अभी भी कालेज में पढ़ाती हैं. इन की

दोनों बहनें सरकारी दफ्तरों में स्टेनो हैं. अत: मेरा घर में बैठना सब को खलता है. जब से रिषी कुछ बड़ा हुआ है, सुबोध समाचारपत्रों में रिक्त स्थान देख कर मुझे बताते रहते हैं, ‘‘तुम भी आवेदन पत्र दे दो न, रिषी अब 4 साल का होने जा रहा है. घर बैठ कर मक्खियां मारने से तो अच्छा ही रहेगा,’’

मुझे आश्चर्य तो तब होता है जब वे मुझे नौकरी के लिए किसी दूरस्थ स्थन में भी भेजने को तैयार हो जाते हैं पर मैं निर्णय कर चुकी हूं कि नौकरी करने के लिए न तो मैं रिषी को असहाय छोड़ूंगी, न इन की छाया छोड़ कर कहीं दूसरी जगह ही जाऊंगी. अत: जब भी ये किसी कारण मुझ पर झल्लाते हैं तो मैं चुप ही रहती हूं. हर बार यही प्रयत्न करती हूं कि घर का तनाव किसी भी तरह शीघ्रातिशीघ्र दूर हो जाए.

रात 12 बजे खापी कर जब हम सोने के कमरे में पहुंचे तो दीदी ने धीरे से मेरे कान में कहा, ‘‘समझ में नहीं आता कि सुबोध की इतनी बातें सुन कर भी तू चुप कैसे रह लेती है. कैसे रह रही है तू इस के साथ? मायके में जा कर भी कभी किसी से कुछ नहीं बताती. किस मिट्टी की बनी है तू?’’

मुझे डर था कि कहीं दीदी की बातों की भनक भी सुबोध के कान में पड़ गई तो अनर्थ हो जाएगा. मैं ने बड़ी नम्रता से कहा, ‘‘दीदी, ये कुछ भी कहते रहें, आप इन के सामने मेरे पक्ष में कभी कुछ न कहें. अकारण ही हमारे जीवन में जहर घुल जाएगा.’’

‘‘तू तो हमेशा से ही मिट्टी की माधो रही है. आखिर डर किस बात का है तुझे? किसी छोटेमोटे घर की तो है नहीं. पिताजी ने 3-3 फ्लैट किस लिए बना रखे हैं? पिछली बार कह तो रहे थे कि एक अजीत के नाम करेंगे, बाकी दोनों हम दोनों के.’’

मैं दीदी के विचारों पर मन ही मन हंस रही थी. पिताजी ने दोनों फ्लैट किराए पर देने के लिए बनवाए थे न कि हम बेटियों के लिए, यह मैं अच्छी तरह जानती हूं.

मुझे चुप देख कर दीदी फिर बोलीं, ‘‘हम से तो भई किसी के दबाव में नहीं रहा जाता. तू तो जानती ही है कि मैं ने तो ससुराल पहुंचते ही अपना अलग घर बना लिया था. मेरी सास तो बातबात पर हिदायतें देना ही जानती थीं.’’

‘‘लेकिन दीदी एक मां को उस के बेटे से अलग कर के आप ने कुछ अच्छा तो किया नहीं.’’

दीदी ने झुंझालाहट भरे शब्दों में कहा, ‘‘तू बहुत अच्छा कर रही है न, अपने लिए? इसी तरह सुबोध के अंकुश में रही तो देख लेना 2-4 साल में ही तेरा बुरा हाल हो जाएगा. लेकिन अब मैं तुझे यहां नहीं रहने दूंगी.’’मैं मन ही मन सोचने लगी, एक घर के 2 घर बनाने से क्या लाभ? क्या इस से दांपत्य जीवन की सब विषमताएं दूर हो जाती हैं?

नहीं बल्कि इस तरह तो विषमताओं व कटुताओं की एक नई कड़ी शुरू होती है, दीदी को इस का आभास चाहे अभी न हो, पर भविष्य में अवश्य होगा.

मैं नींद का बहाना कर के चुपचाप लेट गई ताकि दीदी हमारे बारे में कुछ और न कहें.

अगले दिन प्रात:काल की बातचीत के दौरान मैं ने दीदी से पूछा, ‘‘आप जीजाजी के पास से कब आईं? बंटू व बबली को किस के पास छोड़ आई हैं?’’

‘‘तू तो न जाने किस दुनिया में रहती है? मैं तो 2 महीने पहले ही मेरठ में मां के पास आ गई हूं. मुझे मेरठ की एक बनेबनाए कपड़ों की फर्म में नौकरी भी मिल गई है. यहां भी अपनी फर्म के ही काम से आई हूं.’’

मेरा मुंह आश्चर्य से खुला रह गया, ‘‘आप को नौकरी करने की क्या आवश्यकता थी? बंटू, बबली व जीजाजी का क्या होगा?’’

दीदी लापरवाही से हंसीं, ‘‘तू सोचती है कि बच्चे हमें कुछ भी करने से रोकते हैं. मन में पक्की लगन हो तो क्या रास्ता नहीं मिल सकता? आखिर इतने क्रैचें, नर्सरी व होस्टल किसलिए हैं?’’

बबली व बंटू के मासूम चेहरे मेरी आंखों के आगे नाचने लगे. दोनों बच्चे अभी से मां के प्यार के अभाव में कैसे रहेंगे? मैं दुखित हो उठी. बबली तो अभी 4 वर्ष की भी नहीं हुई है. हरदम दीदी की गोद में लिपटी रहती थी. मैं ने और भी दुखित हो कर उन से पूछा, ‘‘जीजाजी को भी आप अकेला छोड़ आई हैं. उन को अपने व्यस्त जीवन में आप की बहुत आवश्यकता है दीदी…’’

दीदी व्यंग्य से हंसीं, ‘‘उन्हें भी तू ने बच्चा ही समझ लिया है जो अपनी देखभाल खुद नहीं कर सकेंगे? बच्चों को आवासीय विद्यालय में डाला ही इसलिए था कि मैं भी नौकरी कर सकूं. फिर क्या मैं उन के लिए बंध कर घर में बैठी रहती?’’

दीदी के विचारों से मेरा मन दुखित हो उठा. लेकिन उन्हें कुछ भी कहना या समझना व्यर्थ था.

थोड़ी देर चुप रह कर वे फिर बोलीं, ‘‘मैं तो तुझे भी यही सलाह दूंगी कि तू भी नौकरी कर ले. सुबोध जब खुद चाहता है कि तू कमाने लगे तो तू अवसर का लाभ क्यों नहीं उठाती? तू नौकरी करने लगेगी तो यह प्रताड़ना जो तुझे अकारण मिल रही है, कभी नहीं सहनी पड़ेगी. तब तो तू भी सुबोध को 4 बातें सुनाने की हकदार हो जाएगी.’’

तब मैं ने कुछ कठोर पड़ते हुए कहा, ‘‘दीदी आप मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए.’’

तब वह एकदम क्रोधित हो कर बोलीं, ‘‘तू क्या सोचती है कि मैं तुझे यों घुटघुट कर मरने दूंगी? देख लेना, अभी मेरठ जा कर सब पिताजी को बताऊंगी. वही तेरा प्रबंध करेंगे.’’

बस फिर वे पूरा दिन दिल्ली में अपना कामकाज करती रहीं. रात को फिर देर से लौटीं. थोड़ाबहुत खाया और चुपचाप सो गईं. अगले दिन प्रात:काल ही उन्होंने अपना सामान जल्दीजल्दी बटोरा और चली गईं.

मेरा मन सशंकित रहने लगा है कि मुझे व सुबोध को ले कर दीदी मायके में जा कर न जाने क्या उलटासीधा बताएंगी. सुबोध के विरुद्ध घर के पूरे सदस्यों को भड़काएंगी और मेरे प्रति हरेक के दिल में व्यर्थ की सहानुभूति जगाएंगी. यद्यपि मैं जानती हूं कि सुबोध का व्यवहार मेरे प्रति रूखा ही रहता हैऔर जब एक बार रुष्ट होते हैं तो महीनों अपने अहं के कारण बोलने में भी कभी पहल नहीं करते. लेकिन केवल इसी कारण तो अपना घर नहीं छोड़ा जाता.

होली अभी आ कर गई है, बच्चों की छुट्टियां निकट आ रही हैं. इन का व्यवहार यदि तब भी यही रहा तो मेरे लिए इस वर्ष का अवकाश तो सूना ही बीत जाएगा. रिषी ने जिस दिन से प्रतिमा तोड़ी है, इन का उखड़ापन दूर नहीं हो पाया. कई बार मन में आता है कि कितना अच्छा रहे कि इस बार अवकाश में मायके जा कर स्वच्छंदतापूर्वक रहूं.

आज ही डाकिया पत्र दे गया. पिता का पत्र देख कर मन खुशी से झूम उठता. उन्होंने बच्चों की गरमी की छुट्टियां मायके में ही बिताने का आग्रह किया है.

मगर दूसरे ही क्षण एक विचार से मन अत्यंत क्षुब्ध हो उठता है. पिताजी ने केवल मुझे ही क्यों बुलाया? ऐसा तो आज तक कभी नहीं हुआ था. अवश्य ही दीदी ने सुबोध को

ले कर पिताजी के मन में कुछ जहर घोला है. ऐसी स्थिति में क्या मेरा जाना उचित रहेगा? सुबोध को अवकाश के दिनों में यों अकेला छोड़ जाऊं और वहां सब मेरे पति के विरुद्ध कुछ न कुछ मुझसे कहें तो मेरा दिल क्या खाक छुट्टी मना पाएगा?

मुझे यही निर्णय लेना पड़ा कि  इस बार छुट्टियों में यहीं पर इकट्ठे रहेंगे. अपने घर की सफाई व लिपाईपुताई भी करा लेंगे. पिछली बार दीवाली पर करा नहीं पाए थे. अवकाश में रिषी को ये कितने उत्साह से बाजार ले जाते हैं. कितना सामान खरीदवा देते हैं. साथ ही मेरे लिए भी तो कुछ न कुछ ले कर आते हैं. मेरा तनमन सिहर उठा.

दोपहर को अपने पास रखे कुछ रुपयों से इन के लिए एक नई कमीज बाजार से ले आई. जब ये मुझे कुछ उपहार देंगे तो मैं भी इस बार इन्हें कुछ न कुछ दे कर आश्चर्यचकित कर दूंगी. मैं ने इसी विचार से कमीज अपने बक्स में रख दीं.

मेरी आशा के अनुरूप इस बार की गरमी की छुट्टियों के पहले ही दिन ये मुझे बाजार ले गए और इन्होंने एक कीमती साड़ी मुझे ले कर दी और अपने पिछले व्यवहार पर खेद प्रकट करते हुए मेरे कानों में बुदबुदाए, ‘‘दीपा, मैं नहीं जानता था कि तुम इतनी सहनशील हो. अपनी एक छोटी सी जिद के पीछे कि तुम्हें नौकरी करनी ही चाहिए, मैं अकारण ही बातबात में तुम पर झल्लाता रहा. तुम्हारी दीदी से जो तुम्हारी बातें हुईं, उन्होंने तो मेरी आंखें ही खोल दीं. अब कभी ऐसा नहीं होगा,’’ रात साड़ी देते हुए सुबोध ने प्रेमविह्वल हो मुझे अपनी बांहों में समेट लिया. कितनी सुखद स्मृतियां छोड़ गई हैं बच्चों की गरमियों की छुट्टियों की यह पहली रात. उस दिन से इन के व्यवहार में पूर्णत: तबदीली आ गई.

अभी सप्ताह भर ही हुआ था कि पिताजी का वह पत्र न जाने कैसे इन के हाथ लग गया.

ये मेरे समीप आ कर बोले,  ‘‘पिताजी ने न जाने किस उद्देश्य से तुम्हें बुलाया है, चाहे तो 2-4 दिन के लिए मेरठ हो आओ.’’

मेरा मन भी दुविधा में था. मैं भी मेरठ जाने की इच्छुक थी. अगले ही दिन रविवार को इन्होंने मुझे व रिषी को मेरठ की बस में बैठा दिया.

रास्तेभर मैं ने यही अंदाजा लगाया कि दीदी ने मुझे व सुबोध को ले कर सब को खूब भड़काया होगा और वहां यही योजना बन रही होगी कि या तो मुझे सुबोध से अलग कर दिया जाए या इन के व्यवहार के लिए इन्हें कुछ भलीबुरी सुनाई जाए.

धड़कते दिल से घर पहुंची तो केवल दीदी ही वहां उपस्थित थीं. सब लोग किसी के यहां शादी में गए हुए थे.

मुझे अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में देख कर दीदी को आश्चर्य हुआ. बोलीं, ‘‘मायके में पहुंचते ही तू अपने दिल का सब हाल छिपा लेती है, कैसी खुश दिल रही है, लेकिन मैं ही जानती हूं कि बच्चों की छुट्टियों के ये दिन तेरे लिए कितने अंधकारमय बीत रहे होंगे.’’

‘‘सच पूछो तो मेरे विवाहित जीवन में यह पहला मौका था, जिसे मैं हमेशा याद रखूंगी. दीदी आप नहीं जान पाएंगी कि…’’

‘‘तू तो मायके में पहुंचते ही ?ाठ बोलने लगती है. कैसे विश्वास करूं मैं तुझ पर?’’

‘‘आप को यदि विश्वास नहीं हो रहा है तो मत मानिए. मुझे मेरे ही हाल पर छोड़ दीजिए. आप अपनी बताइए? नौकरी लगने के बाद जीजाजी को कोई पत्र लिखा या नहीं?’’

उन के चेहरे पर एकदम गहरी उदासी छा गई, ‘‘दीपा, वह पत्र पिताजी के नाम से मैं ने ही तुझे लिखा था. पिताजी से तो मैं ने केवल उन के हस्ताक्षर भर करवा लिए थे. मैं चाहती हूं कि तू मेरे साथ रहने लगे तो मैं यहां से अलग कोई किराए का मकान देख लूं. तेरी नौकरी भी मैं लगवा दूंगी. यहां मायके में तो अब रहना मुश्किल हो गया है.’’

‘‘दीदी, मैं यदि कभी नौकरी की आवश्यकता समझूंगी भी तो सुबोध से अलग रह कर किसी भी हालत में नौकरी नहीं करूंगी और अब तो वे भी मुझे कहीं और भेजने वाले नहीं हैं,’’ मैं ने पूर्ण विश्वास से दीदी के नेत्रों में झांका तो एक बार फिर उन के चेहरे पर आत्मग्लानि के भाव उमड़ पड़े, शायद अपनी मूर्खता के लिए स्वयं को ही कोस रही थीं.

मैं ने उन्हें समझने के उद्देश्य से कहा, ‘‘मैं तो आप को भी यही राय दूंगी कि आप जीजाजी के पास चली जाएं. अपने दोनों बच्चों का बचपन अपनी देखरेख में बीतने दें. उस के पश्चात भी यदि आप के पास समय हो तो पुणे में ही कोई काम ढूंढ़ सकती हैं.’’

दीदी की आंखें छलक आईं. आंसू पोंछते हुए बोलीं, ‘‘तू तो मेरा स्वभाव जानती ही है. हर बात पर तर्क करने की मेरी आदत ने उन्हें भी बोलने पर विवश कर दिया और वे गुस्से में न जाने मुझ से क्याक्या बोल गए.’’

‘‘और आप उन्हें छोड़ कर चली आईं? क्या पति का घर छोड़ने से जिंदगी की राहें सहज हो जाती हैं? आप तो मायके में रह रही हैं, कैसा लग रहा है आप को?’’

दीदी चुपचाप आंसू टपकाने लगीं, ‘‘मैं ने कई बार अपने कानों से सुना है, दीपा, मां बड़े भैया से कह चुकी हूं कि मेरा यहां रहना उन्हें बहुत बुरा लगता है. लोगों के प्रश्नों के उत्तर देतेदेते परेशान हो गई हूं. दूसरे उन्हें 4 हजार रुपए महीने की आर्थिक हानि हो रही है. जिन दो कमरों में मैं रह रही हूं, उन से उन्हें इतना किराया आसानी से मिल सकता है, इसीलिए तो मैं चाह रही थी कि तू यदि मेरे साथ आ जाए तो कोई और जगह देख लें.’’

मैं समझ गई कि अपनी जिद्द के पीछे दीदी जीजाजी के पास नहीं जाना चाहतीं. अकेले रहना कठिन लग रहा था. सुबोध के व्यवहार को देख ही आई थीं. अत: उस का लाभ उठाना चाहती थीं. अन्य कोई रास्ता उन्हें नहीं सूझा.

मैं ने उन्हें सुझाव दिया, ‘‘आप के मन में डर है कि आप के लौटने पर जीजाजी की न जाने क्या प्रतिक्रिया हो. मगर वे बेहद संवेदनशील हैं. यदि आप उन्हें छोड़ कर न आई होतीं तो निश्चय ही वे अपने कहे के लिए स्वयं ही खेद प्रकट कर के कभी का आप को मना चुके होते. मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे आप का स्वागत मुसकराहट के साथ ही करेंगे.’’

दीदी कुछ देर सोचती रहीं. फिर नम्र शब्दों में बोलीं, ‘‘तू ठीक कहती है दीपा, उम्र

में मुझ से छोटी होने पर भी तू इतनी समझदार रही. सुबोध का स्वभाव भी तूने अपनी सहनशीलता व समझदारी से बदल दिया, जबकि मैं तेरे जीजाजी जैसे सहनशील व्यक्ति को भी यों ही छोड़ आई और आज मुझे लगता है कि उन के बिना मेरा कहीं कोई ठिकाना नहीं. उन के पास लौट जाने में ही मेरा हित है.’’

इन शब्दों के साथ ही दीदी आंखों में प्रायश्चित्त के आंसू पोंछते हुए एकदम उठ कर खड़ी हो गईं, ‘‘जब तक सब लोग लौट कर आएं, मैं अपना सामान बांध लेती हूं. तू खुद देखना कि मां के चेहरे पर मेरे लौट जाने के निर्णय को सुन कर कितनी प्रसन्नता दिखाई देगी.’’

‘‘इस में अस्वाभाविक भी क्या है? हर मां यही चाहेगी कि उस की विवाहिता बेटी अपने पति के साथ ही सुखचैन से रहे. उन के बीच किसी प्रकार का मतभेद न हो और एक ही छत के नीचे दोनों का जीवन सुख से बीते.’’ ‘‘तू वास्तव में बहुत समझदार है, दीपा,’’ अपर्णा दीदी ने यह कह कर मुझे गले से लगा लिया.

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