उसी सुबह बिस्तर से उठते ही मेरा पैर जरा सा मुड़ा और कड़क की आवाज आई. सूज गया पैर. मेरी चीख पर राम भागा चला आया. आननफानन में राम ने मुझे गाड़ी में डाला और लगभग 2 घंटे बाद जब हम डाक्टर के पास से वापस लौटे, मेरे पैर पर 15 दिन के लिए प्लास्टर चढ़ चुका था. पत्नी रोने लगी थी मेरी हालत पर.
‘‘रोना नहीं, चाचीजी, कुदरती रजा के आगे हाथ जोड़ो. कुदरत जो भी दे दे हाथ जोड़ कर ले लो. उस ने दुख दिया है तो सुख भी देगा.’’
रोना भूल गई थी पत्नी. मैं भी अवाक् सा था उस के शब्दों पर. अपनी पीड़ा कम लगने लगी थी सहसा. यह लड़का न होता तो कौन मुझे सहारा दे कर ले जाता और ले आता. दोनों बेटियां तो बहुत दूर हैं, पास भी होतीं तो अपना घर छोड़ कैसे आतीं.
‘‘मैं हूं न आप के पास, चिंता की कोई बात नहीं.’’
चुप थी पत्नी, मैं उस का चेहरा पढ़ सकता हूं. अकसर पीड़ा सी झलक उठती है उस के चेहरे पर. 10 साल का बेटा एक दुर्घटना में खो दिया था हम ने. आज वह होता तो रामसिंह जैसा होता. एक सुरक्षा की अनुभूति सी हुई थी उस पल रामसिंह के सामीप्य में.
रामसिंह हमारे पास आश्रित हो कर आया था पर हालात ने जो पलटा खाया कि उस के आते ही हम पतिपत्नी उस पर आश्रित हो गए? पैर की समस्या तो आई ही उस से पहले एक और समस्या भी थी जिस ने मुझे परेशान कर रखा था. मेरी वरिष्ठता को ले कर एक उलझन खड़ी कर दी थी मेरे एक सहकर्मी ने. कागजी काररवाई में कुछ अंतर डाल दिया था जिस वजह से मुझे 4 महीने पहले रिटायर होना पडे़गा. कानूनी काररवाई कर के मुझे इनसाफ लेना था, वकील से मिलने जाना था लेकिन टूटा पैर मेरे आत्मविश्वास पर गहरा प्रहार था. राम से बात की तो वह कहने लगा, ‘‘चाचाजी, 4 महीने की ही तो बात है न. कुछ हजार रुपए के लिए इस उम्र में क्या लड़ना. मैं भागने के लिए नहीं कह रहा लेकिन आप सोचिए, जितना आप को मिलेगा उतना तो वकील ही खा जाएगा…अदालतों के चक्कर में आज तक किस का भला हुआ है. करोड़ों की शांति के लिए आप अपने सहकर्मी को क्षमा कर दें. हजारों का क्या है? अगर माथे पर लिखे हैं तो कुदरत देगी जरूर.’’
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विचित्र आभा है रामसिंह की. जब भी बात करता है आरपार चली जाती है. बड़ी से बड़ी समस्या हो, यह बच्चा माथे पर बल पड़ने ही नहीं देता. पता नहीं चला कब सारी चिंता उड़नछू हो गई.
अन्याय के खिलाफ न लड़ना भी मुझे कायरता लगता है लेकिन सिर्फ कायर नहीं हूं यही प्रमाणित करने के लिए अपना बुढ़ापा अदालतों की सीढि़यां ही घिसने में समाप्त कर दूं वह भी कहां की समझदारी है. सच ही तो कह रहा है रामसिंह कि करोड़ों का सुखचैन और कुछ हजार रुपए. समझ लूंगा अपने ही कार्यालय को, अपने ही कालिज को दान कर दिए.
पत्नी पास बैठी मंत्रमुग्ध सी उस की बातें सुन रही थी. स्नेह से माथा सहला कर पूछने लगी, ‘‘इतनी समझदारी की बातें कहां से सीखीं मेरे बच्चे?’’
हंस पड़ा था रामसिंह, ‘‘कौन? मैं समझदार? नहीं तो चाचीजी, मैं समझदार कहां हूं. मैं समझदार होता तो अपने पिता से झगड़ा करता, उन से अपना अधिकार मांगता, विलायत चला जाता, डालर, पौंड कमाता, मैं समझदार होता तो आज लावारिस नहीं होता. मैं ने भी अपने पिता को माफ कर दिया है.’’
‘‘कुदरत का सहारा है न तुम्हें, लावारिस कैसे हुए तुम?’’
पत्नी ने ममत्व से पुचकारा. रामसिंह की गहरी आंखें तब और भी गहरी लगने लगी थीं मुझे.
‘‘मन से तो लावारिस नहीं हूं मैं, चाचीजी. 2 हाथ हैं न मेरे पास, एक दिन फिर से वही किसान बन कर जरूर दिखाऊंगा जो सब को रोटी देता है.’’
‘‘वह दिन अवश्य आएगा रामसिंह,’’ पत्नी ने आश्वासन दिया था.
15 दिन कैसे बीत गए पता ही न चला. रामसिंह ही मुझे कालिज से लाता रहा और कालिज ले जाता रहा. उस ने चलनेफिरने को मुझे बैसाखी ला कर नहीं दी थी. कहता, ‘मैं हूं न चाचाजी, आप को बैसाखी की क्या जरूरत?’
24 घंटे मेरे संगसंग रहता रामसिंह. मेरी एक आवाज पर दौड़ा चला आता. घर के पीछे की कच्ची जमीन की गुड़ाई कर रामसिंह ने सुंदर क्यारियां बना कर उस में सब्जी के बीज रोप दिए थे. बाजार का सारा काम वही संभालता रहा. पत्नी के पैर अकसर शाम को सूज जाते थे तो हर शाम पैरों की मालिश कर रामसिंह थकान का निदान करता था. प्लास्टर कटने पर भी रामसिंह ही गाड़ी चलाता रहा. मैं तो उस का कर्जदार हो गया था.
एक महीने के लिए कोई ड्राइवर रखता और घर का कामकाज भी वही करता तो 5 हजार से कम कहां लेता वह मुझ से. महीने भर बाद मैं ने रामसिंह के सामने उस की पगार के रूप में 5 हजार रुपए रखे तो विस्मित भाव थे उस की आंखों में.
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‘‘यह क्या है, चाचाजी?’’
‘‘समझ लो तुम्हारा काम शुरू हो चुका है. तुम गाड़ी बहुत अच्छी चला लेते हो. आज से तुम ही मेरी गाड़ी चलाओगे.’’
‘‘वह तो चला ही रहा हूं. आप के पास खा रहा हूं, रह रहा हूं, क्या इस का कोई मोल नहीं है? आप का अपना बच्चा होता मैं तो क्या तब भी आप मुझे पैसे देते?’’
जड़ सी रह गई थी मेरी पत्नी. पता ही नहीं चला था कब उस ने भी रामसिंह से ममत्व का गहरा धागा बांध लिया था. हमारी नाजुक और दुखती रग पर अनजाने ही राम ने भी हाथ रख दिया था न.
‘‘हमारा ही बच्चा है तू…’’
अस्फुट शब्द फूटे थे मेरी पत्नी के होंठों से. अपने गले से सोने की चेन उतार कर उस ने रामसिंह के गले में डाल दी. आकंठ आवेग में जकड़ी वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी. उसे पुन: खोया अपना बेटा याद आ गया था. पत्नी द्वारा पहनाई गई चेन पर भी रामसिंह असमंजस में था.
आंखों में प्रश्नसूचक भाव लिए वह बारीबारी से हमें देख रहा था. डर लगने लगा था मुझे अपनी अवस्था से, हम दोनों पराया खून कहीं अपना ही तो नहीं समझने लगे. मैं तो संभल जाऊंगा लेकिन मेरी पत्नी का क्या होगा, जिस दिन रामसिंह चला जाएगा.
उस पल वक्त था कि थम गया था. रामसिंह भी चुप ही रहा, कुछ भी न पूछा न कहा. रुपए वहीं छोड़ वह भी बाहर चला गया. कुछ एक प्रश्न जहां थे वहीं रहे.
अगले 2 दिन वह काफी दौड़धूप में रहा. तीसरे दिन उस ने एक प्रश्न किया.
‘‘चाचाजी, क्या आप बैंक में मेरी गारंटी देंगे? मैं गाड़ी अच्छी चला लेता हूं, आप ने ऐसा कहा तो मुझे दिशा मिल गई. मैं टैक्सी तो चला ही सकता हूं न, आप गारंटी दें तो मुझे कर्ज मिल सकता है. मैं टैक्सी खरीदना चाहता हूं.’’
5 लाख की गाड़ी के लिए मेरी गारंटी? कल को रामसिंह गाड़ी ले कर फरार हो गया तो मेरी सारी उम्र की कमाई ही डूब जाएगी. बुढ़ापा कैसे कटेगा. असमंजस में था मैं. कुछ पल रामसिंह मेरा चेहरा पढ़ता रहा फिर भीतर अपने कमरे में चला गया और जब वापस लौटा तो उस के हाथ में कुछ कागज थे.
‘‘यह गांव की जमीन के कागज हैं, चाचाजी. जमीन पंजाब में है इसलिए बैंक ने इन्हें रखने से इनकार कर दिया है. बैंक वाले कहते हैं कि किसी स्थानीय व्यक्ति की गारंटी हो तो ही कर्ज मिल सकता है. आप मेरी जमीन के कागज अपने पास रख लीजिए और अगर भरोसा हो मुझ पर तो…’’
मैं ने गारंटी दे दी और रामसिंह एक चमचमाती गाड़ी का मालिक बन गया. पहली कमाई आई तो रामसिंह ने उसे मेरे हाथ पर रख दिया.
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‘‘अपने पैसे अपने पास रख, बेटा.’’
‘‘अपने पास ही तो हैं. आप के सिवा मेरा है ही कौन जिसे अपना कहूं.’’
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