‘‘स्त्रीमन बहुत कोमल होता है. उसे किसी भी तरह की चोट नहीं पहुंचानी चाहिए, वह कभी मां बन कर तो कभी पत्नी बन कर, कभी बेटी बन कर सब के दुखसुख में शामिल रहती है. उस का हर रूप सम्मान के योग्य है,’’ ये महान वाक्य मेरे दिलदिमाग को हिला रहे थे. ये शब्द मुझे कांटे की तरह चुभ रहे थे. मैं बैडरूम में लेटा हुआ अपने फोन पर न्यूज पढ़ रहा था. थोड़ी देर पहले ही औफिस से आया था.
मेरी पत्नी रश्मि इस समय बच्चों आरिव और आन्या को होमवर्क करवा रही है और यही सब बड़ीबड़ी बातें समझ रही है. मैं ने अंदाजा लगाया शायद किसी कविता का भावार्थ समझ रही होगी.
तो बात यह है दोस्तो कि मैं यह अब तो नहीं मानता कि स्त्री मन कोमल होता है. जब मेरी नईनई शादी हुई थी, मैं कुछ दिन तो यह मानता रहा कि हाय, कैसी नाजुक सी होती हैं लड़कियां, कितना कोमल दिल होता है, जरा सा दिल दुखा नहीं कि आंसू बह जाते हैं, जब बच्चे हो गए तो धीरेधीरे लगा, अजी, काहे का कोमल मन. सब बकवास है. अपने काम से, अपनी मरजी से होता है इन का मन कोमल.
मुझे याद है जब एक बार अम्मांबाबूजी गांव से आए हुए थे. बच्चे उन के साथ हंसखेल कर बहुत खुश रहते थे. यहां लखनऊ में हम जिस फ्लैट में रहते हैं वह मैं ने तभी खरीदा था और मेरे पेरैंट्स हमारा घर देखने आए थे और बहुत खुश थे. आरिव पिताजी के साथ क्रिकेट खेलता और आन्या और अम्मां भी उन के साथ शामिल हो जातीं तो रश्मि के मन की कोमलता जाने कहां गायब हो जाती, मुझे घूरघूर कर कहती, ‘‘कितने दिन में जाएंगे तुम्हारे अम्मांबाबूजी?’’
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