लेखक- निर्मल कुमार
अब भी उस का मन करता कि उस के पति दफ्तर से लौटते ही उसे उसी तरह बांहों में लें जैसे शुरू में लेते थे. उस का शरीर चाहता अठखेलियां हों, कुछ रातों को जागा जाए, कुछ फुजूल की बातें हों और सुबह की रोशनी में धुंधला चांद हो जब वे दोनों सोएं. मगर ये इच्छाएं अब एकतरफा थीं. उसे ग्लानि होने लगी थी अपनी दैहिकता पर. वह अगर खुल कर अपने व्यक्तित्व को जीए तो दुनिया हंसेगी और अगर व्यक्तित्व को न जीए तो शरीर का पोरपोर घुटता है और वह स्थूल होता जाता है. अजब मूल्य है आधुनिक समाज का भी, जो युवावर्ग को तो पूरी आजादी देता है मगर वही युवा वर्ग अपने मातापिता की जरा सी शारीरिक अल्हड़ता बरदाश्त नहीं करता. वह चाहता है कि मातापिता आदर्श मातापिता बने रहें, यह भूल जाएं कि वे स्त्रीपुरुष हैं. 3 बजे पिंकी कालेज से लौटी. वह खाना खा रही थी कि तभी फोन आया. कजली ने फोन उठाया. पिंकी का मित्र संजय था. कजली उस से बातें करने लगी, ‘‘कैसे हो बेटे? मां कैसी हैं? पढ़ाई कैसी चल रही है? तुम कोको की पार्टी में नहीं आए, मुझे बहुत दुख हुआ.’’
‘‘उफ, मां,’’ खीज कर पिंकी उठी और मां से फोन छीन लिया. रिसीवर हाथ से ढकते हुए बरसी, ‘‘यह क्या मां, क्या जरूरत है आप को इतनी बातें करने की?’’
तब तक फोन कट गया. ‘‘यह लो, फोन भी कट गया. सारा वक्त तो फोन पर आप ले लेती हैं. फोन पर चाहे मेरा ही मित्र हो, उसे भी आप अपना ही मित्र समझती हैं. ऐसे ही जब अनीता आती है तो ऐसे प्यार करने लगती हो जैसे वह आप की दोस्त है.’’ ‘‘तो इस में क्या हुआ? मुझे अच्छी लगती है, सीधी और नाजुक सी लड़की है.’’
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