रात साढ़े 11 बजे मोबाइल बज उठा.
‘‘हैलो, कौन?’’
‘‘जी, मैं खलील, अस्सलाम अलैकुम.’’
‘‘वालेकुम अस्सलाम,’’ उतनी ही गर्मजोशी से मैं ने जवाब दिया, ‘‘जी फरमाइए.’’
‘‘आप बेटी की शादी कब तक करेंगी?’’
‘‘फिलहाल तो वह बीएससी फाइनल की परीक्षा दे रही है. फिर बीएड करेगी. उस के बाद सोचूंगी,’’ इस के बाद दूसरी बातें होती रहीं. जेहन के किसी कोने में बीती बातें याद हो उठीं...
6 सालों से मैं खलील साहब को जानती हूं. खलील साहब रिटायर्ड इंजीनियर थे. अकसर अपनी बीवी के साथ शाम को टहलते हुए मिल जाते. हम तीनों की दोस्ती, दोस्ती का मतलब समझने वाले के लिए जिंदा मिसाल थी और खुद हमारे लिए बायसे फक्र.
हमारी दोस्ती की शुरुआत बड़े ही दिलचस्प अंदाज से हुई थी. मैं खलील साहब की पोती शिबा की क्लासटीचर थी. एक हफ्ते की उस की गैरहाजिरी ने मुझे उस के घर फोन करने को मजबूर किया. दूसरे दिन बच्ची के दादादादी यानी खलील साहब और उन की बेगम क्लास के सामने खड़े थे. देख कर पलभर के लिए मुझे हंसी आ गई. याद आ गया जब मैं स्कूल जाने लगी तो मेरे दादाजान पूरे 5 घंटे कभी स्कूल के कैंपस के चक्कर लगाते, कभी पीपल के साए तले गजलों की किताब पढ़ते.
दादी शिबा को बैग थमा कर क्लास में बैठने के लिए कह रही थीं लेकिन वह दादा की पैंट की जेब से चौकलेट निकाल रही थी.
‘बुखार, सर्दी, खांसी हो गई थी. इस वजह से हम ने शिबा को स्कूल नहीं भेजा था,’ दादी का प्यार टपटप टपक रहा था.
‘आज शाम आप क्या कर रही हैं?’ खलील साहब ने मुसकरा कर पूछा.
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