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किचन में जूठे बरतनों का ढेर लगा था तो बाथरूम में कपड़ों का. घर भी एकदम अस्तव्यस्त था. आभा की समझ में नहीं आ रहा था की शुरुआत कहां से करें. कितनी बार कहा नवल से कि वाशिंग मशीन ठीक करा दो, पर सुनते ही नहीं हैं. बाई भी जबतब छुट्टी मार जाती है. लगता है जैसे मुफ्त में काम कर रही हो. निकालती इसलिए नहीं उसे, क्योंकि फिर दूसरी जल्दी मिलती नहीं है और मिलती भी है तो उस के हजार नखरे होते हैं. बाईर् आज भी न आने को कह गई है.

रिनी से तो कुछ कहना ही बेकार है. जब भी आभा कहती है कि अब बच्ची नहीं रही. कम से कम कुछ खाना बनाना तो सीख ले, तो नवल बीच में ही बोल पड़ते कि पुराने जमाने सी बात मत करो. अरे, आज लड़कियां चांद पर पहुंच गई हैं और तुम अभी भी चूल्हेचौके में ही अटकी हुई हो. मेरी बेटी कोईर् बड़ा काम करेगी. तुम्हारी तरह यह घर के कामों में थोड़े उलझी रहेगी. आभा चुप लगा जाती. इस से रिनी और ढीठ बनती गई.

उस की सास निर्मला से तो वैसे भी घर का कोई काम नहीं होता. नहींनहीं, ऐसी बात नहीं कि अब उन का शरीर काम करना बंद कर चुका है. एकदम स्वस्थ हैं अभी भी, परंतु अपने पूजापाठ, धर्मकर्म और हमउम्र सहेलियों से उन्हें वक्त ही कहां मिलता है, जो वे आभा के कामों में हाथ बटाएंगी. साफ कह दिया है कि बहुत संभाल चुकीं वे घरगृहस्थी.

आभा भी उन से मदद नहीं मांगती, क्योंकि बारबार वही बातों को दोहराना, शिकायतें करना और वे भी तब जब कोई सुनने वाला ही न हो, तो इस से अच्छा तो यही लगा आभा को कि खामोश रहा जाए. इसलिए उस ने खामोशी ओढ़ कर घरबाहर की सारी जिम्मेदारियां अपने कंधों पर ले लीं. लेकिन उस पर भी घर के लोगों को उस से कोई न कोई शिकायत रहती ही. खासकर निर्मला को. वे तो हमेशा बकबक करती रहतीं. पासपड़ोस से आभा की शिकायतें करतीं कि बहू कभी बेटी नहीं बन सकती है.

यहीं पास के ही शिव मंदिर से सटी अरविंद बाबा की कुटिया है, जहां वे अपने चेलेचपाटों के साथ निवास करते हैं. अच्छेअच्छे घरों की महिलाएं उन के चरणों में लोट कर खुद को धन्य मानती हैं और निर्मला भी. बाबा से पूछे बिना वे एक भी काम नहीं करतीं. बाबा का वचन मतलब सत्य वचन होता उन के लिए.

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आएदिन मंदिर में कोई न कोई उत्सव होता ही रहता. कभी ठाकुरजी का जन्म उत्सव, कभी ब्याह, कभी यज्ञोपवीत, कभी झूला, कभी जलविहार, कभी कुछ तो कभी कुछ लगा ही रहता. और इन अवसरों पर निर्मला भी खूब चढ़ावा चढ़ातीं. बाबा के बहाने ही तो आखिर उन्हें घर के कामों से फुरसत मिलती और दूसरी औरतों की कहानियां सुनने को मिलतीं. बाबा न होता तो जिम्मदारियों से जूझना पड़ता.

मेहनत की कमाई यों लूटे, अच्छा तो नहीं लगता पर धर्म के मामले में कौन मुंह खोले. इसलिए आभा और नवल चुप ही रहते थे. वैसे भी धर्मसंकट सब से बड़ा संकट होता है. लेकिन आभा इन कर्मकांडों का हिस्सा कभी नहीं बनी और इसीलिए निर्मला उस से क्षुब्ध रहतीं. गुस्सा तो आभा को तब आता, जब निर्मला उस अरविंद बाबा को अपने घर पर प्रवचन, भजन, कीर्तन करवाने बुला लेती थीं. महीने में यह

2-3 बार होता ही होता था. लेकिन इन सब ढकोसलों से बच्चों की पढ़ाई का नुकसान होता और यही बात आभा को बरदाश्त नहीं होती. इसलिए एक दिन आभा ने इस बात का पुरजोर विरोध किया और कहा कि जरूरत नहीं इन बाबाओं को घर बुलाने की, क्योंकि वह इन सब ढकोसलों में बिलकुल विश्वास नहीं करती है, उसे तो बस कर्म पर भरोसा है.

नवल ने कुछ कहा तो नहीं, पर लगा आभा सही कह रही है और वैसे भी घर में जवान लड़की है, तो क्या जरूरत है मां को इन्हें घर पर बुलाने की? समझ गई निर्मला कि बेटा भी बहू की बात से सहमत है. कुछ कहा तो नहीं, पर मन ही मन बड़बड़ाईं कि यहां लोग दूरदूर से बाबा के दर्शन करने आते हैं, पर इन अभागों को कौन समझाए यह बात?

इधर कुछ दिनों से आभा की तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. बहुत थकान महसूस हो रही थी. सिर भी भारीभारी लग रहा था. हलका बुखार भी रहने लगा था. खाने की इच्छा तो होती ही नहीं थी. जबरदस्ती अगर कुछ खा भी लेती, तो पेट में दर्द होने लगता और उलटी हो जाती. समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उसे हो क्या गया है? जब नवल से कहती, तो वे चिढ़ कर कहते डाक्टर को दिखा लो. बहुत होता तो मैडिकल स्टोर से दवा ला कर पकड़ा देते और साथ में

10 बातें भी सुना देते कि उस सुमन से गप्पें मारने का समय होता है, घंटों सासबहू के सीरियल देख सकती, पर डाक्टर के पास नहीं जा सकती. घर में काम ही कितना होता है जो हर वक्त काम की दुहाईर् देती रहती है? ऐसी बातें बोल कर नवल आभा को चुप करा देता और वह बेचारी सोचती कि जाने दो ठीक हो जाएगा अपनेआप, पर मर्र्ज था कि दिनप्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था.

हमारे समाज में सदियों से औरतें खुद को इगनोर करती आई हैं. आज भी औरतों के लिए पहले पति, बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों का स्वास्थ्य सर्वोपरि होता है. आभा का भी यही हाल था. अगर घर में किसी को एक छींक भी आ जाए, तो परेशान हो उठती थी, लेकिन अपनी परेशानी ठीक हो जाएगी सोच कर टाल जाती थी.

उस दिन आभा का जी बहुत मिचला रहा था. सिर में दर्द तो इतना कि लग रहा था फट

ही जाएगा. सोचा नवल औफिस जा ही रहे हैं तो उसे डाक्टर के पास छोड़ देंगे और फिर वह दिखा कर वापस आ जाएगी. अत: बोली, ‘‘सुनिएजी, आप सिर्फ मुझे अस्पताल छोड़ दीजिए, मैं डाक्टर से दिखा कर वापस आ जाऊंगी.’’

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नवल जो गाना गुनगुनाते हुए अपनी टाई ठीक कर रहा था आभा की बात सुनते ही फूट पड़ा, ‘‘पागल हो क्या? खुद मुझे देर हो रही है और तुम और देर करवाने की फिराक में लगी हो? जाओ न खुद दिखा लो डाक्टर को. वैसे भी जब देखो, कोई न कोई बीमारी लगी ही रहती है तुम्हें… एक तो कमा कर खिलाओ और फिर ये सब लफड़े… नहीं होगा इतना मुझ से,’’ भुनभुनाते हुए नवल औफिस निकल गया और आभा हैरान सी उसे जाते देखती रह गई. लगा सब की सेवा करे तो ठीक, लेकिन अपने बारे में कुछ बोले, तो कैसे नवल खीज उठते हैं.

औरत की तो यही दशा है. सब के लिए सोचती है, लेकिन जब किसी को उस के लिए करना पड़ जाए, तो वह उकताने लगता है. बेचारी आभा, अपने दर्द को दरकिनार कर फिर घर के कामों में जुट गई.

रात में आभा को बड़ी बेचैनी होने लगी. गरम पानी के सेंक से और बाम लगा लेने से पेट दर्द और सिरदर्द तो कुछ ठीक हुआ, लेकिन सूखी खांसी बड़ी परेशान करने लगी. बुखार था सो अलग. कमजोरी से उठने का मन नहीं कर रहा था. लग रहा था कोई पानी पिला दे. इसलिए नवल को उठाया, लेकिन कैसे झल्लाते हुए उस ने उसे पानी दिया वही जानती है. बेचैनी के मारे फिर पूरी रात उसे नींद नहीं आई. सारा बदन दर्द के मारे टूट रहा था, मगर कहे तो किस से?

सुबह किसी तरह उठ चायनाश्ता बनाया. नवल को औफिस भेज कर किचन का बाकी काम अभी समेट ही रही थी कि एकदम से चक्कर आ गया और वहीं धड़ाम से गिर पड़ी. वह तो वक्त पर सुमन वहां पहुंच गईर् और उसे डाक्टर के पास ले गई वरना जाने क्या अनर्थ हो जाता. अस्पताल से ही रिनी ने पापा को फोन कर के बताया कि मां बेहोश हो गई हैं. जल्दी अस्पताल पहुंचें.

नवल आननफानन में वहां पहुंच गया. जांच कर डाक्टर ने बताया कि आभा को हैपेटाइटिस बी हुआ है और उसे अस्पताल में भरती करना पड़ेगा. सुन कर तो जैसे नवल को चक्कर ही आ गया. लगा अब घर कैसे चलेगा? आभा इतनी बीमार है इस की उसे जरा भी परवाह नहीं. चिंता होने लगी कि घर कैसे चलेगा?

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