लेखक- विनय कुमार पाठक
“माँ! अब मैं थक चुकी हूँ. आपमेरी भलाई चाहती हैं यह मैं जानती हूँ. आपमेरा बहुत खयाल रखती हैं. जरूरत से कहीं ज्यादा. और आपका यह जरूरत से ज्यादा खयाल मेरे अरमानों का मेरे स्वतन्त्रता का गला घोंट देती है. आप बात-बात पर उदाहरण देती हैं न कि अति सर्वत्र वर्जएत. यहाँ भी अति हो रहा है और इससे आपको परहेज करना चाहिए.” सपना ने तमतमाते हुए कहा.
दर असल अभी-अभी उसका बॉय फ्रेंड उमेश उसे छोड़कर वापस गया था और उसकी माँ कल्याणी ने उसके प्रति अपनी नापसंदगी जताई थी.
“लेकिन बेटा हम तुम्हारी भलाई के लिए ही तो कुछ कहते हैं. मुझे उमेश जरा भी पसंद नहीं है. उसकी पर्सनाल्टी तुम्हारे सामने कुछ भी नहीं है.” कल्याणी ने अपनी बेटी को समझाया.
“माँ वह मेरा फ्रेंड है. मुझे पसंद है उसका साथ. आपके पसंद होने न होने से क्या मतलब है? मैं अब बालिग हूँ और अपना भला बुरा समझ सकती हूँ.” सपना ने गुस्से से कहा.
“देखो, तुम बालिग जरूर हो गई हो. पर मेरे लिए तुम हमेशा बच्ची ही रहोगी और तुम्हारी भालाई सुनिश्चित करना मेरा अधिकार भी है और कर्तव्य भी.” कल्याणी ने क्रोधपूर्वक कहा. पर उसके क्रोध में भी प्यार झलक रहा था.
“आज तक आपको मेरा कोई भी दोस्त ठीक नहीं लगा. किसी न किसी कारण से आपने सबसे मुझे दूरी बनाने की सलाह दी. आपको हमेशा यही लगता रहा कि मुझे और अच्छे लड़के से दोस्ती करनी चाहिए. आपके स्टैंडर्ड तक पहुंचना मेरे लिए संभव नहीं है और न ही मैं पहुंचाना चाहती हूँ. आप कैसे व्यक्ति को पसंद करती हैं शायद आपको भी नहीं पता.” सपना ने पैर पटकते हुए कहा और अपने कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर पलंग पर निढाल पड़ गई.