थोड़ी देर में वह फिर आ कर मेरे पास बैठ गई, बोली, ‘‘गौरव, तुम आज ही चले जाओ, पता नहीं भाभी किस मुसीबत में हैं.’’
मैं ने कहा, ‘‘हां बेला, यदि मैं ने उन की आज्ञा नहीं मानी तो मैं स्वयं को क्षमा नहीं कर पाऊंगा.’’
‘‘इतने बड़े भक्त हो भाभी के?’’
‘‘हां, बेला. मेरे लिए वे भाभी ही नहीं, मेरी मां भी हैं, उन का मुझ पर बहुत कर्ज है, बस यों समझ ले, भाभी न होतीं तो मैं आज जो हूं वह न होता, एक आवारा होता और फिर तुम जैसी इतनी सुंदर, इतनी कुशल पत्नी मुझे कहां मिलतीं.’’
‘‘हांहां, बटरिंग छोड़ो, हमेशा भाभी, भाभी की रट लगाए रहते हो.’’
‘‘अरे, मैं बेला, बेला भी तो रटता हूं, पर तुम्हारे सामने नहीं,’’ कह कर मैं मुसकराया.
‘‘दूसरों के सामने बेला ही बेला रहता है मेरी जबान पर, मेरे सारे फ्रैंड्स से पूछ कर तो देखो,’’ कह कर मैं चुप हो गया और सोचने लगा कि हो सकता है कि वहां भाभी का मन न लग रहा हो, टैलीफोन पर रहरह कर भाभी का असंतोष झलकता रहता है, बेटेबहुओं से वे प्रसन्न नहीं. ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? क्या भाभी को यहां ले आऊं? यहां ले आया तो क्या बेला निभा पाएगी उन से? बेला को निभाना चाहिए, उन्होंने मुझे इतना प्यार दिया है, मुझ जैसे आवारा को एक सफल आदमी बनाया है.
वह घटना रहरह कर मेरी आंखों के सामने घूमती रहती है जब मैं बी.एससी. फाइनल में था. मेरी बुद्धि प्रखर थी, परीक्षा में सदा फर्स्ट आता था, पर कुछ साथियों की सोहबत में पड़ कर मैं सिगरेट पीने लगा था. पैसों की कमी कभी भाभी ने होने नहीं दी. एक दिन…
‘‘भाभी…ओ भाभी.’’
‘‘क्या बात है?’’
‘‘जल्दी से एक सौ का नोट निकालो, जल्दी करो, नहीं तो भैया आ जाएंगे.’’
‘‘डरता है भैया से?’’
‘‘हां, उन से डर लगता है.’’
‘‘और मुझ से नहीं?’’ कह कर वे मुसकराईं.
‘‘अरे, तुम से क्या डरना? भाभी मां से भी कोई डरता है?’’ कह कर मैं ने उन की कोली भर ली और उन का एक चुंबन ले लिया.
वे मुसकरा कर गुस्सा दिखाती हुई बोलीं, ‘‘हट बेशर्म कहीं का… बचपना नहीं गया अब तक.’’
‘‘मेरा बचपना चला गया तो तुम बूढ़ी न हो जाओगी, फिर कौन बेटा मां को चूमता है, अच्छा है, यों ही बच्चा बना रहूं.’’
उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया और मेरे सिर पर हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘चल हट, ले 100 रुपए का नोट.’’
एक दिन भाभी ने आवाज लगाई, ‘‘गौरव, मशीन लगा रही हूं कपड़े हों तो दे दो.’’
मैं ने अपनी कमीज, पैंट, बनियान उन्हें दे दिए. जब वे कपड़े मशीन में डालती थीं तो पैंट, कमीजों की जेबें देख लिया करती थीं. वे मेरी कमीज की जेब में हाथ डालते हुए बड़बड़ाईं, ‘यह भी नहीं होता इस से कि अपनी जेबें देख लिया करे, देख यह क्या है?’
जेब में सिगरेट का पैकेट था. उसे देख कर वे वहीं माथा पकड़ कर बैठ गईं, गौरव और सिगरेट. वे चिल्लाईं, ‘‘गौरव.’’
‘‘हां, भाभी?’’
‘‘यह क्या है?’’ मुझे पैकेट दिखाते हुए वे लगभग चीखीं.
‘‘यह, यह…’’ और मैं चुप.
‘‘बोलता क्यों नहीं, क्या है यह?’’ कह कर मेरे मुंह पर एक जोर का तमाचा मारा और फिर फफकफफक कर रो पड़ीं.
काफी देर बाद वे चुप हुईं, अपने आंसू पोंछते हुए कुछ सोचती सी मुझ से बोलीं, ‘‘गौरव, सौरी, मैं ने तुम्हें थप्पड़ मारा… अब कभी नहीं मारूंगी. मारने का मेरा हक खत्म हुआ.’’
थोड़ी देर मौन रह कर वे पुन: बोलीं, ‘‘अपने भैया से मत कहना, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं,’’ उन्होंने हाथ जोड़ते हुए मेरी ओर कातर नजरों से देखा.
मैं काठ की मूर्ति बना खड़ा रहा. बहुत कुछ बोलना चाहता था, पर मुंह से शब्द नहीं फूटे अपनी सफाई में… मैं कुछ कह भी नहीं सकता था, क्योंकि वह सब झूठ होता, मैं ने सिगरेट पीनी शुरू कर दी थी. बस, इतना ही कह पाया था, ‘‘सौरी भाभी मां.’’
भाभी ने मुझ से बोलचाल बंद कर दी. दिन में 2 बार ही वे मुझे आवाज लगाती थीं, ‘‘गौरव नाश्ता तैयार है, गौरव खाना तैयार है, गौरव कपड़े हों तो दे दो.’’
भाभी मेरे कमरे में आतीं और मेरी मेज पर 100 रुपए का नोट रखते हुए कहतीं, ‘‘और जरूरत हो तो बोल देना.’’
एक दिन मैं ने कहा, ‘‘जब आप मुझ से कोई संबंध ही नहीं रखना चाहतीं तो रुपए क्यों देती हैं?’’
‘‘इसलिए कि एक ऐब के साथ तुम दूसरे ऐब के शिकार न हो जाओ, चोरी न करने लगो. सिगरेट की तलब बुझाने के लिए तुम्हें पैसों की जरूरत पड़ेगी, पैसे न मिलने पर तुम चोरी करने लगोगे और मैं नहीं चाहती कि तुम चोर भी बन जाओ.’’
‘‘आप की बला से, मैं चोर बनूं या डाकू.’’
इस पर वे बोलीं, ‘‘सिर्फ इंसानियत के नाते मैं नहीं चाहती कि कोई भी नवयुवक किसी ऐब का शिकार हो कर अपनी प्रतिभा को कुंठित करे, तुम मेरे लिए एक इंसान से अधिक कुछ नहीं,’’ कह कर वे चली गईं.
मैं काफी परेशान रहा. फिर सिगरेट न पीने का संकल्प कर लिया. भाभी का स्वास्थ्य दिन ब दिन गिरता जा रहा था. वे पीली पड़ती जा रही थीं, हर समय उदास रहती थीं, जैसे उन के भीतर एक झंझावात चल रहा हो. भैया ने भी कई बार कहा था कि सुमित्रा, क्या तबीयत खराब है? वे हंस कर टाल जाती थीं. उन की बनावटी हंसी से मैं दहल उठता था. एक दिन वे मेरे कमरे में आईं. मेज पर 100 का नोट रखते हुए बोलीं, ‘‘और चाहिए तो बोल देना.’’
जैसे ही वे बाहर जाने को हुईं, मैं ने उन का हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘भाभी.’’
उन्होंने झटके से हाथ खींच लिया, बोलीं, ‘‘मत कहो मुझे भाभी, उसे मरे तो काफी दिन हो गए.’’
‘‘माफ नहीं करोगी?’’
‘‘माफ तो अपनों को किया जाता है, गैरों को कैसी माफी? रोजाना इतने जुर्म होते हैं, क्या सभी को माफी देने का ठेका मैं ने ले रखा है? मैं कोई जज हूं, जो अपराधी की अपील को सुन कर उसे माफ कर दूं?’’
‘‘क्या सौमित्र के साथ भी ऐसा ही बरताव करतीं?’’
‘‘अरे, उस से तो यही कहती कि घर से बाहर हो जाओ.’’
‘‘फिर मुझे क्यों नहीं कहा?’’
‘‘तुम मेरे पेट के जाए जो नहीं.’’
‘‘ठीक, यही मैं सुनना चाहता था, मैं तुम्हारा दिखावे का बेटा था, मतलब सगे और पराए में अंतर बना ही रहता है. मैं पराया हूं,
मैं ने भूल की जो आप को अपना समझा. ठीक है, अब मेरा आप का वास्तव में कोई रिश्ता नहीं, अब के बाद आप मेरी सूरत नहीं देखेंगी… गुड बाय,’’ कह कर मैं किताब के पन्ने पलटपलट कर पढ़ने का बहाना करने लगा.
मैं आत्मग्लानि के भंवर में फंसा था, अपराध तो मुझ से हुआ था, इतना बड़ा विश्वासघात? मेरी आंखों से आंसू टपकने लगे, मैं ने निर्णय किया कि मैं घर छोड़ कर चला जाऊंगा,
जब मांबाप ही नहीं रहे तो भैयाभाभी पर कैसा अधिकार?
अगले दिन भैया दफ्तर चले गए तो मैं ने अपनी पुस्तकें, कुछ कपड़े अटैची में रखे और घर छोड़ कर निकल जाने को तैयार हुआ. भाभी ने देख लिया था कि मैं अटैची लगा रहा हूं. वे कमरे में आईं, ‘‘यह क्या हो रहा है? कहीं जाने की तैयारी है?’’
‘‘हां, आप का घर छोड़ कर जा रहा हूं.’’
‘‘घर आप का भी है, मेरा ही नहीं. इस के आधे के मालिक हैं आप, आप घर छोड़ कर क्यों जाएंगे, घर छोड़ कर तो मुझे जाना चाहिए, क्योंकि असली कसूरवार तो मैं हूं.