कीर्ति ने निशा का चेहरा उतरा हुआ देखा और समझ गई कि अब फिर निशा कुछ दिनों तक यों ही गुमसुम रहने वाली है. ऐसा अकसर होता है. कीर्ति और निशा दोनों का मैडिकल कालेज में दाखिला एक ही दिन हुआ था और संयोग से होस्टल में भी दोनों को एक ही कमरा मिला. धीरेधीरे दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई.
कीर्ति बरेली से आई थी और निशा गोरखपुर से. कीर्ति के पिता बैंक में अधिकारी थे और निशा के पिता महाविद्यालय में प्राचार्य.
गंभीर स्वभाव की कीर्ति को निशा का हंसमुख और सब की मदद करने वाला स्वभाव बहुत अच्छा लगा था. लेकिन कीर्ति को निशा की एक ही बात समझ में नहीं आती थी कि कभीकभी वह एकदम ही उदास हो जाती और 2-3 दिन तक किसी से ज्यादा बात नहीं करती थी.
आज रक्षाबंधन की छुट्टी थी. कुछ लड़कियां घर गई थीं और बाकी होस्टल में ही थीं क्योंकि टर्मिनल परीक्षाएं सिर पर थीं. कीर्ति ने निश्चय किया कि आज वह निशा से जरूर पूछेगी. होस्टल में घर की याद तो सभी को आती है पर इतनी उदासी...
नाश्ता करने के बाद कीर्ति ने निशा से कहा, ‘‘चल यार, बड़ी बोरियत हो रही है घर की याद भी बहुत आ रही है. वहां तो सब त्योहार मना रहे होंगे और यहां हमें पता नहीं कि उन्हें हमारी राखी भी मिली होगी या नहीं.’’
निशा ने भी प्रतिवाद नहीं किया. दोनों औटो से पार्क पहुंचीं. वहां का माहौल बहुत खुशनुमा था. कई परिवार त्योहार मनाने के बाद शायद पिकनिक मनाने वहां पहुंचे थे. दोनों एक कोने में नीम के पेड़ के नीचे पड़ी खाली बैंच पर बैठ गईं. निशा चुपचाप खेलते हुए बच्चों को देख रही थी. कीर्ति ने पूछा, ‘‘निशा, अब हम और तुम अच्छे दोस्त बन गए हैं. मुझे अपनी बहन जैसी ही समझो. मैं ने कई बार नोट किया कि तुम कभीकभी बहुत ज्यादा उदास हो जाती हो. आखिर बात क्या है?’’