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तीजत्योहार, ब्याहशादियों में बीजी बहुत याद आती. अपनी पीढ़ी के हर तीजत्योहार, पर्व के लोकगीतों का संग्रह थी वह. ऊपर से आवाज ऐसी कि जो एक बार बीजी के मुंह से कोई लोकगीत सुन ले तो सुनता ही रह जाए.

बीजी के जाने के बाद जब भी मौका मिलता बाबूजी बीजी की बातें ले

बैठते. बीजी के साथ के मेरे होने से पहले के किस्से तब मुझ से सांझ करने से नहीं हिचकते. कई बार तो बाबूजी के नकारने के बाद भी साफ लगता कि बीजी के जाने के बाद बाबूजी बीजी के और नजदीक हो गए हों जैसे. पता नहीं ऐसा क्यों होता होगा कि किसी के जाने के बाद ही हम उस के पहले से और नजदीक हो आते हैं.

बाबूजी को अपने साथ यों खुलतेघुलते देख मैं हैरान था कि कहां वह बाबूजी का मेरे साथ रिजर्व से भी रिजर्व रहना और कहां आज इतना घुलमिल जाना कि... बाबूजी कभी देवानंद, कभी सुनील दत्त तो कभी किशोर कुमार भी रहे थे, धीरेधीरे वे जब खुश होते तो मेरे पूछे बिना ही अपनी परतें यों खोलते जाते ज्यों अब मैं उन का बेटा न हो कर उन का दोस्त होऊं.

बीजी के जाने के बाद मैं ने ही नहीं, राजी ने भी बाबूजी के चश्मे का नंबर 4 महीने में 4 बार बदलते देखा. हर 20 दिन बाद बाबूजी की शिकायत, मेरी आंखें कुछ देख नहीं पा रहीं. तब राजी ने मन से बाबूजी से कहा भी था कि वे हमारे साथ ही पूरी तरह से रहें. पहले तो बाबूजी माने नहीं, पर बाद में एक शर्त बीच में डाल मान गए. अवसर देख उन्होंने शर्त रखी, ‘‘तो शाम का भोजन सब के लिए नीचे की रसोई में ही बना करेगा. और...’’

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