लेखिका- रेखा विनायक नावर
2 साल स्कूल की पढ़ाई उस ने यहीं से की थी. एक दिन आनंद को उस समय के अपने सब से करीबी दोस्त रमाकांत मोरचकर यानी मोरू ने अपने घर बुलाया. वक्त मिलते ही आनंद भी अपना सामान बांध कर बिना बताए उस के पास पहुंच गया.
‘‘आओआओ... यह अपना ही घर है,’’ मोरू ने बहुत खुले दिल से आनंद का स्वागत किया, लेकिन उस के घर में एक अजीब तरह का सन्नाटा था.
‘‘क्या मोरू, सब ठीक तो है न?’’
‘‘हां, ऐसा ही सम झ लो.’’
‘‘बिना बताए आने से नाराज हो क्या?’’
तब तक भाभी पानी ले कर बाहर आईं. उन के चेहरे पर चिंता की रेखाएं साफ नजर आ रही थीं.
‘‘सविता भाभी कैसी हैं आप?’’
‘‘ठीक हूं,’’ कहते समय उन के चेहरे पर कोई भाव नहीं था.
‘‘आनंद के लिए जरा चाय रखो.’’
देवघर में चाची (मोरू की मां) पूजा कर रही थीं. उन्हें नमस्कार किया.
‘‘बैठो बेटा,’’?चेहरे से चाची भी खुश नहीं लग रही थीं.
बैठक में आनंद की नजर गई तो 14-15 साल की एक लड़की चुपचाप बैठी थी, जो उस की उम्र को शोभा नहीं दे रही थी. दुबलेपतले हाथपैर और चेहरा मुर झाया हुआ था. आनंद ने बड़े ध्यान से देखा.
‘‘यह सुरभि है न...? चौकलेट अंकल को पहचाना नहीं क्या? हां, सम झ में आया. चौकलेट नहीं दी, इसलिए तू गुस्सा है. यह ले चौकलेट, यहां आओ,’’ पर सुरभि ने चौकलेट नहीं ली और अचानक से रोने लगी.
‘‘आनंद, वह बोल नहीं सकती है,’’ चाचीजी ने चौंकने वाली बात कही.
‘‘क्या...? बचपन में टपाटप बोलने वाली लड़की आज बोल नहीं सकती, लेकिन क्यों?’’
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