लेखक- रमेश चंद्र छबीला
सावित्री आंखों की जांच कराने दीपक आई सैंटर पर पहुंचीं. वहां मरीजों की भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. अपनी बारी का इंतजार करतेकरते 2 घंटे से भी ज्यादा हो गए. तभी एक आदमी तेजी से आया और बोला, ‘‘शहर में दंगा हो गया है, जल्दी से अपनेअपने घर पहुंच जाओ.’’
यह सुन कर वहां बैठे मरीज और दूसरे लोग बाहर की ओर निकल गए. सावित्री ने मोबाइल फोन पर बेटे राजन को सूचना देनी चाही, पर आज तो वे जल्दी में अपना मोबाइल ही घर भूल गई थीं. वे अकेली रिकशा में बैठ कर आई थीं. अब सूचना कैसे दें?
बाहर पुलिस की गाड़ी से घोषणा की जा रही थी, ‘शहर में दंगा हो जाने के चलते कर्फ्यू लग चुका है. आप लोग जल्दी अपने घर पहुंच जाएं.’
सावित्री ने 3-4 रिकशा और आटोरिकशा वालों से बात की, पर कोई गांधी नगर जाने को तैयार ही नहीं हुआ जहां उन का घर था.
निराश और परेशान सावित्री समझ नहीं पा रही थीं कि घर कैसे पहुंचें? शाम के 7 बज चुके थे.
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तभी एक स्कूटर उन के बराबर में आ कर रुक गया. स्कूटर चलाने वाले आदमी ने कहा, ‘‘भाभीजी नमस्ते, आप यहां अकेली हैं या कोई साथ है?’’
‘‘भाई साहब नमस्ते, मैं यहां अकेली आई थी, आंखों की जांच कराने. दंगा हो गया है. घर की तरफ कोई रिकशा नहीं जा रहा है.’’
‘‘इधर कोई नहीं जाएगा भाभीजी, क्योंकि दंगा पुराने शहर में हुआ है. आप चिंता न करो और मेरे साथ घर चलो.
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