देशी घी की खुशबू धीरेधीरे पूरे घर में फैल गई. पूर्णिमा पसीने को पोंछते हुए बैठक में आ कर बैठ गई.
‘‘क्या बात है पूर्णि, बहुत बढि़याबढि़या पकवान बना रही हो. काम खत्म हो गया है या कुछ और बनाने वाली हो?’’
‘‘सब खत्म हुआ समझो, थोड़ी सी कचौड़ी और बनानी हैं, बस. उन्हें भी बना लूं.’’
‘‘मुझे एक कप चाय मिलेगी? बेटा व बहू के आने की खुशी में मुझे भूल गईं?’’ प्रोफैसर रमाकांतजी ने पत्नी को व्यंग्यात्मक लहजे में छेड़ा.
‘‘मेरा मजाक उड़ाए बिना तुम्हें चैन कहां मिलेगा,’’ हंसते हुए पूर्णिमा अंदर चाय बनाने चली गई.
65 साल के रमाकांतजी जयपुर के एक प्राइवेट कालेज में हिंदी के प्रोफैसर थे. पत्नी पूर्णिमा उन से 6 साल छोटी थी. उन का इकलौता बेटा भरत, कंप्यूटर इंजीनियरिंग के बाद न्यूयार्क में नौकरी कर लाखों कमा रहा था.
भरत छुटपन से ही महत्त्वाकांक्षी व होशियार था. परिवार की सामान्य स्थिति को देख उसे एहसास हो गया था कि उस के अच्छा कमाने से ही परिवार की हालत सुधर सकती है. यह सोच कर हमेशा पढ़ाई में जुटा रहता था. उस की मेहनत का ही नतीजा था कि 12वीं में अपने स्कूल में प्रथम और प्रदेश में तीसरा स्थान प्राप्त किया.
रमाकांतजी की माली हालत कोई खास अच्छी न थी. भरत को कालेज में भरती करवाने के लिए बैंक से लोन लिया था, पर किताबें, खानापीना दूसरे खर्चे इतने थे कि उन्हें और भी कई जगह से कर्जा लेना पड़ा. एक छोटा सा मकान था, उसे आखिरकार बेच कर किसी तरह कर्जे के भार से मुक्त हुए.
भरत ने अच्छे अंकों से इंजीनियरिंग पास कर ली. फिर जयपुर में ही 2 वर्ष की टे्रनिंग के बाद उसे कंपनी वालों ने न्यूयार्क भेज दिया.