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अवध का कहना था, ‘तुम्हें खानेपहनने की कोई दिक्कत नहीं  होगी. जैसे  चाहो, रहो लेकिन मैं दिवा को नहीं छोड़ सकता. तुम पत्नी हो और वह प्रेमिका.’

‘क्या केवल खानापहनना और पति के अवैध रिश्ते  को अनदेखा करना ही  ब्याहता का धर्म है?’ रमा इस कठदलीली को कैसे बरदाश्त करती. खूब रोईधोई. अपने सिंदूर,  मुन्ने का वास्ता दिया. सासससुर  से इंसाफ मांगा. उन्होंने उसे  धैर्य रखने की  सलाह दी. बेटे को  ऊंचनीच  समझाया,  डांटा, दुनियादारी का हवाला दिया.

लेकिन अवध पर दिवा के रूपलावण्य का जादू चढ़ा हुआ था. रमा जैसे चाहे, रहे. वह  दिवा को नहीं  छोड़ेगा.

एक  म्यान में  दो तलवारें नहीं  रह सकतीं. रमा को प्यारविश्वास  का खंडित हिस्सा  स्वीकार्य  नहीं.

पतिपत्नी का मनमुटाव,  विश्वासघात शयनकक्ष से बाहर आ चुका था. जब रमा पति को  समझाने  में  नाकामयाब रही तब एक दिन  मुन्ने को गोद में  ले मायके का रास्ता  पकड़ा.

सासससुर ने समझाया. ‘बहू, अपना घर पति को छोड़ कर मत जाओ. अवध की आंखों से  परदा जल्दी ही उठेगा. हम सब तुम्हारे  साथ हैं.’

किंतु रमा का भावुक  हृदय  पति के इस  विश्वासघात  से टूट गया था. व्यावहारिकता से  सर्वथा अपरिचित  वह इस घर में  पलभर भी रुकने के लिए  तैयार न थी जहां उस का पति पराई स्त्री  से  संबंध रखता हो. उस की खुद्दारी ने अपनी मां के  आंचल का सहारा लेना ही उचित समझा, भविष्य की  भयावह स्थिति से अनजान.

‘बहू,  मुन्ने के बगैर हम कैसे  रहेंगे?’ सासुमां ने मनुहार की.

‘पहले अपने  बेटे को  संभालिए, मैं  अपने बेटे पर  उस दुराचारी पुरुष की छाया तक नहीं पड़ने देंगे.’

‘उसे संभालना तो तुम्हें पड़ेगा  बहू. तुम उस की पत्नी  हो, ब्याहता हो. इस प्रकार मैदान  छोड़ने से बात  बिगड़ेगी ही.’

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