लेखिका- सरोज गोयल
मेरी निगाह कलैंडर की ओर गई तो मैं एकदम चौंक पड़ी...तो आज 10 तारीख है. उर्मिल से मिले पूरा एक महीना हो गया है. कहां तो हफ्ते में जब तक चार बार एकदूसरे से नहीं मिल लेती थीं, चैन ही नहीं पड़ता था, कहां इस बार पूरा एक महीना बीत गया. घड़ी पर निगाह दौड़ाई तो देखा कि अभी 11 ही बजे हैं और आज तो पति भी दफ्तर से देर से लौटेंगे. सोचा क्यों न आज उर्मिल के यहां ही हो आऊं. अगर वह तैयार हो तो बाजार जा कर कुछ खरीदारी भी कर ली जाए. बाजार उर्मिल के घर से पास ही है. बस, यह सोच कर मैं घर में ताला लगा कर चल पड़ी. उर्मिल के यहां पहुंच कर घंटी बजाई तो दरवाजा उसी ने खोला. मुझे देखते ही वह मेरे गले से लिपट गई और शिकायतभरे लहजे में बोली, ‘‘तुझे इतने दिनों बाद मेरी सुध आई?’’
मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं तो आखिर चली भी आई पर तू तो जैसे मुझे भूल ही गई.’’
‘‘तुम तो मेरी मजबूरियां जानती ही हो.’’
‘‘अच्छा भई, छोड़ इस किस्से को. अब क्या बाहर ही खड़ा रखेगी?’’
‘‘खड़ा तो रखती, पर खैर, अब आ गई है तो आ बैठ.’’
‘‘अच्छा, क्या पिएगी, चाय या कौफी?’’ उस ने कमरे में पहुंच कर कहा.
‘‘कुछ भी पिला दे. तेरे हाथ की तो दोनों ही चीजें मुझे पसंद हैं.’’
‘‘बहूरानी, कौन आया है?’’ तभी अंदर से आवाज आई.
‘‘उर्मिल, कौन है अंदर? अम्माजी आई हुई हैं क्या? फिर मैं उन के ही पास चल कर बैठती हूं. तू अपनी चाय या कौफी वहीं ले आना.’’