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सुनता रहा विजय सब. बस, जरूरत की बात करता रहा जिस के बिना गुजारा नहीं चल सकता था.

‘‘अब तुम्हारे घर पर ही देख लो. मिन्नी की शादी के बाद तुम भी अकेले रह जाओगे. घरबाहर, मांबाप सब को अकेले ही तो देखना होगा. मिन्नी का पति घुलमिल गया तो ठीक. नहीं तो एक असुरक्षा की भावना तो है ही न. जैसे मुझ में है... किसी अपने को ही खोजता रहता हूं... कोई अपना ऐसा जिस पर भरोसा कर सकूं. तुम्हारी तो एक बहन है भी, मेरे पास तो वह भी नहीं है.’’

मेरे इस वाक्य से उसे एक झटका सा लगा. गाड़ी के स्टेयरिंग पर उस के हाथ घूम गए और पैर बे्रक पर जम गए. बहुत गौर से उस ने मुझे देखा.

‘‘क्या हुआ, विजय? रुक क्यों गए?’’ इतना कह कर मैं सोचने लगा कि सामने कोई वाहन भी नहीं था जिस वजह से उस ने गाड़ी कच्चे पर उतार दी थी. परेशान सा हो गया सहसा जैसे कुछ नया ही सुन लिया हो, कुछ ऐसा जो अविश्वसनीय हो.

विजय स्वयं ही मुसकरा भी पड़ा. हंस कर गरदन हिला दी मानो मैं ने कोई बेवकूफी भरी बात कर दी हो. कहीं वह मुझे ‘इमोशनल फूल’ तो नहीं समझ रहा. अकसर लोग मुझ जैसे इनसान को एक भावुक मूर्ख की संज्ञा भी देते हैं. ऐसा इनसान जिस की जिंदगी में भावना का स्थान सब से ऊपर आता है, ऐसा इनसान जो सोचता है कि एक मानव दूसरे मानव के बिना अधूरा है, ऐसा इनसान जो रिश्तों को तोड़ना नहीं, निभाना चाहता है.

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