सुबह सुबह फोन की घंटी बजी.  अनिष्ट की आशंका से मन धड़क गया. मीना की सास बहुत बीमार थीं. रात देर वे सब भी वहीं तो थे. वैंटिलेटर पर थीं वे...पता नहीं कहां सांस अटकी थी. विजय मां को ऐसी हालत में देख कर दुखी थे. डाक्टर तो पहले ही कह चुके थे कि अब कोई उम्मीद नहीं, बस विजय लंदन में बसे अपने बड़े भाई के बिना कोई निर्णय नहीं लेना चाहते थे. मां तो दोनों भाइयों की हैं न, वे अकेले कैसे निर्णय ले सकते हैं कि वैंटिलेटर हटा दिया जाए या नहीं.

निशा ने फोन उठाया. पता चला, रात 12 बजे भाईसाहब पहुंचे थे. सुबह ही सब समाप्त हो गया. 12 बजे के करीब अंतिम संस्कार का समय तय हुआ था.

‘‘सोम, उठिए. विजय भाईसाहब की मां चली ?गईं,’’ निशा ने पति को जगाया. पतिपत्नी जल्दी से घर के काम निबटाने लगे. कालेज से छुट्टी ले ली दोनों ने. बच्चों को समझा दिया कि चाबी कहां रखी होगी.

दोनों के पहुंचने तक सब रिश्तेदार आ चुके थे. मां का शव उन के कमरे में जमीन पर पड़ा था. लंदन वाले भाईसाहब सोफे पर एक तरफ बैठे थे. सोम को देखा तो क्षणभर को आंखें भर आईं. पुरानी दोस्ती है दोनों में. गले लग कर रो पड़े. निशा मीना के पास भीतर चली आई जहां मृत देह पड़ी थी. दोनों बड़ी बहनें भी एक तरफ बैठी सब को बता रही थीं कि अंतिम समय पर कैसे प्राण छूटे. मां की खुली आंखें और खुला मुंह वैसा ही था जैसा अस्पताल में था. अकड़ा शरीर आंखें और मुंह बंद नहीं होने दे रहा था. वैंटिलेटर की वजह से मुंह खुला ही रह गया था.

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