लेखक- डा. कृष्ण कांत
शशांक अपने आफिस में काम कर रहा था कि चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘साहब, आप को बनर्जी बाबू याद कर रहे हैं.’’
उत्पल बनर्जी कंपनी के निदेशक थे. पीठ पीछे उन्हें सभी बंगाली बाबू कह कर संबोधित करते थे. कंपनी विद्युत संयंत्रों की आपूर्ति, स्थापना और रखरखाव का काम करती थी. कंपनी के अलगअलग प्रांतों में विद्युत निगमों के साथ प्रोजेक्ट थे. शशांक इस कंपनी में मैनेजर था.
‘‘यस सर,’’ शशांक ने बनर्जी साहब के कमरे में जा कर कहा.
‘‘आओ शशांक,’’ इतना कह कर उन्होंने उसे बैठने का इशारा किया.
शशांक के दिमाग में खतरे की घंटी बज उठी. उसे लगा कि उस की हालत उस बकरे जैसी है जिसे पूरी तरह सजासंवार दिया गया है और बस, गर्दन काटने के लिए ले जाना बाकी है. शशांक ने अपने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया और चुपचाप कुरसी पर बैठ गया.
‘‘तुम्हारा फरीदाबाद का प्रोजेक्ट कैसा चल रहा है?’’
‘‘सर, बहुत अच्छा चल रहा है. निर्धारित समय पर काम हो रहा है और भुगतान भी ठीक समय से हो रहा है.’’
‘‘बहुत अच्छा है. मुझे तुम से यही उम्मीद थी, पर मैं तुम्हें ऐसा काम देना चाहता हूं जो सिर्फ तुम ही कर सकते हो.’’
शशांक चुपचाप बैठा अपने निदेशक मि. बनर्जी को देखता रहा. उसे लगा कि बस, गर्दन पर तलवार गिरने वाली है.
‘‘शशांक, तुम्हें तो पता है कि लखनऊ वाले प्रोजेक्ट में कंपनी की बदनामी हो रही है. भुगतान बंद हो चुका है. हमें पैसा वापस करने का नोटिस भी मिल चुका है. मैं चाहता हूं कि तुम वह काम देखो.’’