अचानक ही मैं बहुत विचलित हो गई. मन इतना उद्वेलित था कि कोई भी काम नहीं कर पा रही थी. बिलकुल सांपछछूंदर जैसी स्थिति हो गई. न उगलते बनता न निगलते. मेरा अतीत यहां भी मेरे सामने आ खड़ा हुआ था.

देखा जाए तो बात बहुत छोटी सी थी. शिखा, मेरी 16 वर्षीय बेटी, शाम को जब स्कूल से लौटी तो आते ही उस ने कहा, ‘‘मां, वह शर्मीला है न.’’

मेरी आंखों में प्रश्नचिह्न देख कर उस ने आगे कहा, ‘‘अरे वही, जो उस दिन मेरे जन्मदिन पर साड़ी पहन कर आई थी.’’

हाथ की पत्रिका रख कर रसोई की तरफ जाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘हां, तो क्या हुआ उसे?’’

‘‘उसे कुछ नहीं हुआ. उस की चचेरी दीदी आई हुई हैं, मुरादाबाद से. पता है, वे हस्तरेखाएं पढ़ना जानती हैं,’’ स्कूल बैग को वहीं बैठक में रख कर जूते खोलती हुई शिखा ने कहा.

मैं चौकन्नी हो उठी. रसोई की ओर जाते मेरे कदम वापस बैठक की तरफ लौट पड़े. शिखा इस सब से अनजान अब तक जूते और मोजे उतार चुकी थी. गले में बंधी टाई खोलते हुए वह बोली, ‘‘कल रविवार है, इसलिए हम सभी सहेलियां शर्मीला के यहां जाएंगी और अपनेअपने हाथ दिखा कर उन से अपना भविष्य पूछेंगी.’’

मैं सोच में डूब गई कि आज यह अचानक क्या हो गया? मेरे भीतर एक ठंडा शिलाखंड सा आ गिरा? क्या इतिहास फिर अपनेआप को दोहराने आ पहुंचा है? क्या यह प्रकृति का विधान है या फिर मेरी अपनी लापरवाही? क्या नाम दूं इसे? क्या समझूं और क्या समझाऊं इस शिखा को? क्या यह एक साधारण सी घटना ही है, रोजमर्रा की दूसरी कई बातों की तरह? लेकिन नहीं, मैं इसे इतने हलके रूप में नहीं ले सकती.

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